Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 461
________________ ४३६) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे भी प्रसिद्ध हो रहा है। यहां कोई स्थूल बुद्धि श्रोता आक्षेप उठाता है कि मूर्त आत्मा के नामकर्मका बन्ध हो रहा है । उसीके समान प्रदीपके नामकर्म के सम्बन्ध क्षे जानेका प्रसंग आवेगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उसकी दृष्टान्तपसे विवक्षा नहीं की गई है । कर्मबन्धनकी अपेक्षा हेतुधर्मपनका हमारा अभिप्राय नहीं है । अपने आधार हो रहे अधिष्ठान के परिमाणका अनुविधान करना केवल इतनेही साधन धर्मका कुछ दीपकमें सद्भाव है । सभी दाष्टन्तिके धर्म दृष्टान्तमें नहीं मिलते हैं । अन्यथा वह दृष्टान्तही नहीं रहेगा दाष्टन्ति बन बैठेगा । प्रकरण में जीवका अधिष्ठान नियमसे शरीर है । और दीपकका आश्रय तो घर है, जीव और प्रदीप दोनोंमें उन अपने आधारोंके परिमाणका अनुविधान करना पाया जाता है । इस कारण हमारे ऊपर कोई उलाहना नहीं आता है । जीवमें अपने शरीरके परिमाणका अनुविधान करना साधन है । उसका प्रदीपमें असद्भाव है, और प्रदीप में अपने आधार हो रहे घरके परिमाणका अनुविधान है उसका जीवमें भी अभाव है । तिस कारण अनुमान वाक्य बनाकर यह कह दिया जाता है कि संसारी जीव ( पक्ष ) आत्मप्रदेशों के संकोचविस्तार धर्मोंको लिये हुये है । ( साध्य ) अपने अधिष्ठान के परिमाणका अनु विधान करनेवाला होनेसे ( हेतु) प्रदीपके प्रकाशसमान ( अन्वयदृष्टान्त ) किन्तु तथा मुक्त आत्मा (पक्ष) अपने अधिष्ठानके परिमाणका अनुविधान करनेवाला नहीं है । ( साध्यदल ) क्योंकि वह अरीर है, उसके अधिष्ठानका अभाव है | ( हेतु ) मुक्त आत्माने जो अव्यवहित पूर्ववर्ती शरीरकें परिमाणका अनुकरण कर लिया है । वह तो अन्तिम शरीर उपाधिके हट जानेसे स्वाभाविक हो गया है । यदि नामकर्म पुनः कोई दूसरा शरीर रचा जाता तो उस आकारको मुक्त आत्मा अवश्य छोड देता नामकर्म सम्बन्धका निमित्त पाकर शरीरान्तरकी रचना होना उस पूर्वाकार के परित्यागका कारण है । मुक्त जीवके अव शरीर रचनाका अभाव है । अतः मुक्त आत्माका प्रदेश विस्तार हो जाना नहीं होता है । जिससे कि लोकाकाश बरोबर परिमाण हो जानेकी आपत्ति प्राप्त होती । नबु संहरण विसर्पणस्वभावस्यात्मनः प्रदीपवदेवा नित्यत्वप्रसग इति चेन्न तावन्मात्रस्य विवक्षितत्वात् चन्द्रमुखीवत् संहरणविसर्पणस्वभावत्वमात्रं विवक्षितं चन्द्रमुखीप्रियदर्शनवत् । सर्वसाधर्म्ये दृष्टान्तस्यापन्हवात् ।

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