Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
विवरण करते हुये ग्रन्थकारने अष्टसहस्रीमें अच्छा विवेचन किया है। यहां ग्रन्यकार उपसंहार करते हैं कि तिस कारण सम्पूर्ण अर्थोंको विषय कर रहे कोई क्षायिक दर्शन और ज्ञान आदि भी केवल है। यह बहुत बढिया प्रथम सूत्रमें कहा जा चुका है। अब यहां दूसरे प्रकारकी शंका उठाई जाती है। जैसे कि राजवात्तिकमें की गई है कि यहां प्रथम सूत्रमें लाघव करनेके लिये सूत्रमें समासवृत्ति कर देनेका प्रसंग प्राप्त है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि क्रमसे मोह आदि कर्मोके क्षय हो जानेकी ज्ञप्ति करानेके लिये पहिले पदका द्वन्द्वसमास नहीं किया गया है। अन्तर्मुहूर्त पहिले उस मोहका क्षय हो जाना केवलकी उत्पत्तिका हेतु है इसी कारण मोहक्षयात् पदका हेतुस्वरूपको कहनेवाली पञ्चमी विभक्ति द्वारा कथन किया गया है । इसही रहस्यको ग्रन्यकार अग्रिम दो वात्तिकोंमें कह रहे है कि " पूर्वही बारहवें गुणस्थानकी आदिमें चारित्र मोहनीय कर्मका क्षय हो जाता है, उसके अन्तर्मुहूर्तका पश्चात् तेरहवें गुणस्थानकी आदिमें ज्ञानावरणादि तीनों कर्मोंका क्षय हो जाता है । यह तत्त्वसमासवृत्तिपूर्वक कथन नहीं करनेसे सूत्रकारका मन्तव्य है यों प्रतीत हो जाता है ॥ ९ ॥ इस प्रकार घातिकर्मोंके समुदायका समूल घात हो जानेसे आत्माके केवल उपजता है। उन क्षायिक भावोंका प्रकट हो जानाही आत्माका मुख्य स्वरूप है । अरहन्त परमेष्ठियोंके उस स्वरूपकी लब्धि हो जाना ही मोक्ष है। अरहन्तदेवके अनुयायी दार्शनिक स्वरूपलाभ हो जानेको मोक्ष स्वीकार करते हैं ॥ १० ॥ ग्रन्थकारको केवलकी प्रधानता अभीष्ट है। उसका समर्थन किया जा चुका है, फिर भी कुछ अस्वरस रह गया दीखता है । अतः ग्रन्थकार उस बातको सिद्ध करने के लिये सर्वोत्कृष्ट हेतु दे रहे हैं कि इस हेतुसे भौ सूत्रोक्त केवलकी प्रधानता पुष्ट होती है। इसको अग्रिम वात्तिक द्वारा ग्रन्थकार कहते हैं कि उस केवलकी उत्पत्ति होते सन्तेही मोक्षाभिलाषी जीवोंको मुक्तिके मार्गका उपदेश प्राप्त होता है । अतः केवलकी प्रधानता भले प्रकार सिद्ध हो बैठेगी इसही कारण सूत्रकारने दशमें अध्यायके पूर्व में केवलकी उत्पत्ति हो जानेका वचन कहा है । ।। ११ ।। अब यहां किसीका प्रश्न उठता है कि फिर यह बताओ कि मोहादिकोंका क्षय भला किस कारणसे हो जाता है । इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तनपर तो ग्रन्थकार द्वारा यों समाधान कहा जाता है कि वह कर्मोका क्षय तो जीवकी विशेष आत्मविशुद्धिसे हो जाता है । शुद्ध प्रणिधानोंसे कर्मोका क्षय हुआ करता है। चौथे असंयतसम्यग्दृष्टि आदि