Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 442
________________ दशमोऽध्यायः ४१७) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थके भेद हैं । हगना, मूतना, जम्हाई लेना, छींकना ये भी पुरुषार्थ हैं । ऐसे पुरुषार्थोंसे लौकिक कार्य सम्पादित होते हैं । साधारण रूपेण सभी जीवोंमें पाये जा रहे खाना, पीना, सो जाना, उच्चारण करना, चलना आदि पुरुषार्थोंसे न तो कर्मका क्षय होता है । और न ऐसे कार्योंको करने से कोई प्रमाणपत्र मिलता है । हां, मोक्षके साधनभूत पुरुषार्थों का संपादन करनेसे महती प्रतिष्ठा और अविनश्वर सुखसंपत्ति प्राप्त होती है । लौकिक पुरुषार्थोंसे असंख्यातगुणा पुरुषार्थ अलौकिक कार्यों में करना पडता है । हंसने, रोने, व्यायाम करने, नाचने, घोडा बैल हांकने, पांव दाबने, गाडी खेंचने, कुस्ती लडने आदि कार्यों में जो ईषत् अगण्य पुरुषार्थ होता है उससे असंख्यातगुणा पुरुषार्थ मन, काय द्वारा देवदर्शन, देवार्चन, मुनिदान आदि शुभक्रियाओंके अनुष्ठानमें किया जाना है । सामायिक करने और शुभध्यान लगानें में तो अपरिमित पुरुषार्थ संयमीको करना पडता है । यदि कोई इन्द्र शारीरिक बलसे जम्बूद्वीपको उठा लेवें उस प्रयत्नसे उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणीवालोंका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ कहीं अनन्तगुणा तोलमें समझा जायगा । सच पूछो तो पशुबल या शारीरिक बलसे आत्मीय पुरुषार्थ बलोंके लिये गुणकारका मिलनाही असंभव है । शून्यसे एक अक्षरको कितना गुना कहा जा सकता है ? जो कोई संख्या गुणाकारके लिये नियत की जायगी, अल्पीयसी पडेगी इस रहस्यको पहिले भी कहा जा चुका है । निःसंशय अवधारण करनेके लिये पुनरुक्त किया गया है । बात यह है कि सातिशय मिथ्यादृष्टि से प्रारम्भकर चौदहवें गुणस्थानतक जीवोंके बड़े भारी प्रयत्नपूर्वक पुरुषार्थ हो रहे हैं । समाधिमरण कर रहा, श्रावक या मुनि तथा भावनाओंको भाव रहा धर्मात्मा अथवा उत्तमक्षमा आदिक धर्मोंको धार रहा, व्रतोंको पाल रहा, इन्द्रियोंका निग्रह कर रहा, परीषहोंकों जीत रहा, कषायोंपर विजय पा रहा, अभक्ष्योंको त्याग कर रहा, अहिंसा, ब्रम्हचर्य आदिमें तन्मय हो रहा, मन, वचन, कायका गोपन कर रहा मुमुक्षु जीव बडा भारी पुरुषार्थी है । एक रटे हुये व्याख्यानको झाड देनेवाले पण्डितसे सिद्धान्त या न्यायकी कठिन पंक्तिको चुपके होकर लगा रहा विद्वान् अत्यधिक पुरुषार्थी है । अलमेतत् प्रसंगिन्या कथया । चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तमेषु गुणस्थानेषु मध्येऽन्यतम गुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वप्रकृतित्रयस्य च क्षयो विधीयते, अनिवृत्तिबादरसां परायगुणस्थानस्य नव भागाः क्रियन्ते तत्र प्रथमभागे निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि,

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