Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 445
________________ ४२०) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे नीचगोत्र ॥७२॥ मिति अयोगिकेवलिचरमसमये त्रयोदश प्रकृतयः क्षयमुपयान्ति । कास्ता-अन्यतरवेदनीयं १ मनुष्यायुः, २ मनुष्यगति, ३ पञ्चेन्द्रियजाति, ४ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ५ त्रसत्वं ६ वावरत्वं ७ पर्याप्तकत्वं ८ शुभगत्वं ९ आदेयत्वं १० यशस्कोतिः ११ तीर्थकरत्व १२ उच्चैर्गोत्रं १३ चेति एतासां द्रव्यकर्मप्रकृतीनां क्षयान्मोक्षोऽवसीयत इति निरुक्तिः । पुनस्तथाच तस्य कर्मणः सद्वन्धोदयोदीरण व्यवस्थाग्रहणं तत्कृतः विभागो गुणस्थानापेक्षः प्रवचनान्नेयः । तेरहवें गुणस्थानवाले योग सहितके बलज्ञानीके तो किसी भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता है। हां, चौदहवे गुणस्थानके द्विचरम समय यानी अन्तिम समयके पूर्ववर्ती समयमें बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय हो जाता है । वे बहत्तर प्रकृतियां कौनसी हैं ? इसका उत्तर यह है कि साता, असाता दो वेदनीय कर्मों से एक कोई सा भी वेदनीयकर्म, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर नामकर्म, आहारक शरीर तैजसशरीर नामकर्म, कार्मणशरीर, ये पांचों शरीर नामक नामकर्म, उन पांचों शरीरोंके पांचों बन्धनकर्म और पांचों शरीरोंके पांचो संघात नामकर्म, उन शरीर कर्मोसे उपजे नोकर्म शरीरोंके उपयोगी छहों संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वक्रियिकशरीर अंगोपाङ्ग, आहारक शरीर अंगोपांग यों ये तीनों अंगोपांग नामककर्म, छओं संहननकर्म, प्रशस्त और अप्रशस्त पांचों वर्णकर्म, सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों गन्ध कर्म, प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय पांचों रसकर्म, आठौं स्पर्शकर्म, देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघुत्व, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, ये दोनों कर्म प्रकृतियां, अपर्याप्तिकर्म प्रत्येक शरीर, स्थिरत्व, अस्थिरत्वकर्म, शुभ, अशुभत्वकर्म, दुर्भगत्व, सुस्वरत्व, दुःस्वरत्व, अनादेयकर्म, अयशस्कीति, निर्माण नामकर्म और नीचैर्गोत्र इस प्रकार बहत्तर प्रकृतियोंका योग है। चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली महाराजके अन्तिम समयमें तेरह प्रकृतियां क्षयको प्राप्त हो जाती हैं। वे तेरह कर्म प्रकृतियां कौनसी है ? इसका समाधान यह है कि दोनों वेदनीय कर्मोंसे शेष रहा कोई भी एक वेदनीय कर्म, मनुष्य आयुष्य, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, त्रसत्व, वादरत्व, पर्याप्तकत्व, शुभगत्व, आदेयत्व, यशस्कीति, तीर्थकरत्व, उच्चैर्गोत्र, यों तेरह प्रकृतियां चौदहवेंके अन्तिम समयकें अव्यवहित उत्तर क्षणमें नष्ट हो जाती हैं। यों इन एकसौ अडतालीस कर्म प्रकृतियोंके क्षयसे मोक्ष हो जाना निर्णीत किया जाता है। यहांतक मोक्ष शद्वकी

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