Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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दशमोऽध्यायः
४३१)
कोई तर्क उठा रहा है कि घोडे, बैल, आदिके समान बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी । अर्थात् घोडे आदिका एक बन्धन टूट जानेपर भी पुनः दुसरे बन्धनोंसे जैसे उनका बन्ध जाना सम्भव है । उसी प्रकार जीवका भी कोई एक बन्ध दूर हो गया है । तो भी अन्य कर्मबन्धन बन बैठेंगे । सदाके लिये मोक्ष हो जानेकी व्यवस्था नहीं मानी जा सकती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि बन्धके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति आदिक परिणाम हैं। परिपूर्णरूप से मिथ्यादर्शन आदिका जब उच्छेद हो चुका है । तब उन बन्ध हेतुओंका क्षय हो जानेंसे पुनः बन्ध नहीं हो पाता है । जब कारणही नहीं रहे तो कार्योंकी उत्पत्ति किनसे होगी ? । पुनः कटाक्ष उठाया जा रहा है कि एक बार मुक्त हो जानेपर भी फिर उनके बन्धकी प्रवृत्ति हो जानेका प्रसंग लग जावेगा । कारण कि अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख समुद्रमें डूब रहे जगत्को ज्ञानद्वारा जान रहे और केवलदर्शन द्वारा सत्तालोचन कर रहे मुक्त जीवके अवश्य करुणा उपजेंगीं, दुःखित जीवोंको देखकर अहिंसक दयालु 'जीवका करुणाभाव उपज जाना स्वाभाविक है । मुनियोंके भी क्लिश्यमान जीवों में कारुण्यभावनाका उपज जाना सातवें अध्याय में कहा गया है । उस करुणासे सिद्धों के द्रव्यकर्मोका बन्ध जाना अनिवार्य है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्यों कि सम्पूर्ण शुभ, अशुभ, आस्रवोंका परिपूर्ण क्षय हो जानेसे मुक्त जीवोंके बन्ध परिणतिका अभाव है । आस्रवपूर्वक बन्ध होता है। सिद्धों में करुणा नहीं है, करुणा तो स्नेहप्रमाद की पर्याय है । रागभावों से सर्वथा रीते हो रहे मुक्त जीवों में स्नेहकी पर्याय हो रही करुणाका उसी प्रकार असंभव है जैसे कि भक्ति, स्पृहा, गृद्धि, आकांक्षा आदि नहीं संभवती हैं। अर्थात् सिद्धभगवान् अहिंसा, उत्तमक्षमामय हैं । उनमें भक्ति, करुणा, आदिक राग परिणतियां नहीं हैं । जो कि बन्धके कारण हैं। यदि किसी भी कारण के नहीं भी होनेपर अकस्मात् मुक्तके बन्ध होना मानोगे यानी विनाही कारणके मुक्त - जीव कर्मबद्ध हो जावेगा । कहोगे तब तो कदाचित् भी मोक्ष नहीं हो सकनेका प्रसंग आ जावेगा । मोक्ष हो जानेके अव्यवहित उत्तर कालमें ही पुनः कर्मबन्ध बन बैठेगा । तब मोक्ष कहां हुई । यह दार्शनिकोंका नियम है कि " सदकारणवन्नित्यं " सत् होकर जो उत्पादक कारणोंसे रहित है वह नित्य है । गगनकुसुम, अश्वविषाण, या वैशेषिक के यहां माने गये । प्रागभाव इन असत् पदार्थों में अतिप्रसंगका निवारण करनेके लिये