Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 449
________________ ४२४) तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकारे रत्नत्रयात्मक मार्गका विघात करनेवाला यह सूत्रोक्त सिद्धान्त नहीं है । यह इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने कह दिया है । भावार्थ -- प्रथमाध्यायके पहिले सूत्रमें रत्नत्रयको मोक्षका मार्ग ( उपाय ) बताया गया है । और अब बन्धहेत्वभाव और निर्जराको मोक्षका कारण कह दिया है । यह सूत्रकारका निरूपण विरोध दोषापन्न होय यह नहीं समझ बैठना क्योंकि संवर और निर्जरा रत्नत्रयस्वरूपही है || ६ || अब कोई ऊहापोह करनेवाला प्रश्न उठाता है कि आपने पूर्वकारिकाओं द्वारा सूत्रोक्त कारणकोटिको बहुत अच्छी तरह समझा दिया है कि इस रत्नत्रयधारी जीवके मिथ्यादर्शन, अविरति आदि हेतुओंका अभाव हो जानेसे नवीन नवीन आनेवाले कर्मोके ग्रहणका अभाव हो गया तथा पूर्व में - कह दिये गये निर्जराके अनुभव चमत्कारिक तपश्चरण हेतुओंका निकटपन हो जानेपर संचित कर्मोंकी निर्जरा हो गई । इस प्रकार बंधहेत्वभाव और निर्जरा करके मोक्षका प्रादुर्भाव हुआ अब यह बताओ कि उस उपज रही मोक्षका लक्षण क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज सूत्रके विधेयदलको यों कह रहे हैं कि सम्पूर्ण कर्मोंका विशेषरूपेण प्रकृष्ट मोक्ष हो जाना मोक्ष है । यों कह चुक्रनेपर उसका व्याख्यान करनेके लिये ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकको कह रहे हैं कि " वि" यानी विशेषरूप से और " प्र यानी प्रकृष्ट रूपसे जीवके सम्पूर्ण कर्मोंका अत्यन्त वियोग जो हो जावेगा वही मोक्ष है । ऐसा इस लक्ष्यलक्षणभाव द्वारा समझ लेना चाहिये । सूत्रकारका एक एक पद अनिष्ट व्यावर्तक है || ७ | अब यहां कोई प्रश्न उठा रहा है कि व्यक्तिरूपसे कर्म भलेही सादि और सान्त हों किन्तु सम्पूर्ण कर्मोकी सन्तान अनादि काल से चली आ रही है । अनादि पदार्थ अवश्य अनन्त होता है । वैशेषिक प्रागभावको अनादि और सान्त मानते हैं । अतः प्रागभावसे भिन्न हो रहा जो जो सत्पदार्थ अनादि है । वह निश्चयसे अनन्त है, यह निर्दोष व्याप्ति बन रही है । अतः सर्व कर्मोकी सन्ता - नका आदि नहीं होनेसे उसके अन्तका भी अभाव हो जायगा ऐसी दशामें अनन्तकाल तकके लिये कर्मोंका अभाव नहीं हो सकता है । ग्रन्थकार कहते है कि यह तो नहीं कहना क्योंकि बीजकी सन्तान और अंकुरकी सन्तान करके व्यभिचारदोष आ जायगा । अर्थात् जो जो अनादि सत् है । वह वह अनन्त है, यह व्याप्ति व्यभिचरित है | देखिये किसी भी बीज या अंकुरको पकड लिया जाय उसकी सन्तान बराबर अनादिकाल से चली आ रही है । मध्यमें एक व्यक्ति के भी टूटनेका व्यवधान नहीं पडा है - किसी भी 1)

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