Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 441
________________ ४१६) तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे भावार्थ- यदि देवआयुका बन्ध हो जाता तो मरकर उनको देवगतिमें जाना पडता, जब कि उनका उसी भवमें मोक्ष हो जाना अनिवार्य है । तथा नरक आयुः, और तिर्यक् आयुका उनको यदि बन्ध हो गया होता तो वे चरम शरीरी जीव नहीं होते हुवे वे अणुव्रत या महाव्रतोंको ही धारण नहीं कर पाते। क्योंकि “ चत्तारि वि खेत्ताइं आउग बन्धेण होइ सम्मत्तं अणुवय महव्व आई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं "अतः उसी मनुष्य पर्यायसे मोक्षको प्राप्त करनेवाले जीवके चार आयु कर्मोमें केवल भुज्यमान मनुष्य आयुष्य कर्मका सद्भाव है । इतर तीन आयुओंका विना यत्न किये ही क्षय हो चुका समझो । हां, प्रथमोक्त प्रयत्नोंसे साध्य हो रहा कर्मों का क्षय तो अब यथाम्नाय कहा जा रहा है । सम्पूर्ण कर्मप्रकृतियां एकसौ अडतालीस ( १४८ ) हैं । उनमें तीन आयुओंका तो यत्न किये विना ही क्षय हो जाना कहा जा चुका है । शेष एकसौ पैंतालीस प्रकृतियोंका क्षय करनेके लिये मुमुक्षु पुरुषार्थी जीवको महान् प्रयत्न करना पडता है । संसारी जीवोंकें अनेक प्रकार पुरुषार्थ होते है । खाये हुये को पचाना लडका, लडकी उत्पन्न करना उनको पालना, पढाना, पावोंसे चलकर देशान्तरको जाना, पूजन करना, सामायिक करना, स्वाध्याय, ध्यान करना इत्यादिक सम्पूर्ण क्रियायें पुरुषार्थ है । औषधिकी सहायता पाकर अनेक रोगोंको स्वकीय ज्ञात, अज्ञात पुरुषार्थों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है । छोटी फुंसियां, हलका श्लेष्म, स्वल्प सुईका चुभ जाना आदिक पचासों लघु रोगका विना औषधिके ही स्वकीय आरोग्यवर्धक अस्वसंविदित पुरुषार्थ द्वारा विनाश कर दिया जाता है । बहुभाग बड़े रोगों में भी औषधि मात्र आश्वासन करा देती है । कुछ कुपित बात, पित्त, कफ, सम्बन्धी दूषित पुद्गलका निवारण भी कर देती है । किन्तु आरोग्य, स्वाथ्य, बलबृद्धि तो शारीरिक प्रकृति अनुसार निज पुरुषार्थ द्वाराही प्राप्त होते हैं । घोडा को जब थकान हो जाती है । तब वह लेट लाटकर स्वकीय पुरुषार्थसे मार्गखेदको मिटा देता है । अनेक मनुष्य दिनमें कार्य करके थक जाते हैं । रातको सो जानेपर शारीरिक प्रकृतिके बलसे बुद्धिपूर्वक या पुरुषार्थों द्वारा उस थकानको दूर कर दिया जाता है । " स्वजीविते काम सुखे च तृष्णया, दिवाश्रमार्ता निशिशेरते प्रजाः। त्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्त वा नजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि " ( "बृहत् स्वयंभूस्तोत्रं") यों एकेंद्रियसे लगाकर पञ्चेन्द्रियपर्यन्त अनन्तानन्त जीवोंके बुद्धिपूर्वक, अबुद्धिपूर्वक, इच्छापूर्वक, अनिच्छापूर्वक विचारपूर्वक, अविचारपूर्वक अनेक पुरुषार्थ होते रहते हैं ।

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