Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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:: दशमोऽध्यायः ।
अथवा " ततश्च निर्जरा" और तपसा निर्जरा च, यों संकेतमात्र कह दिये गये निर्जरातत्त्वको अनभिधायक उच्चार्यमाण शद्वोंकी सामर्थ्यसेही समझ लिया जाय । इसी तत्वको ग्रन्थकार अग्रिम वात्तिक द्वारा कह रहे हैं।
सर्वकर्मक्षयो मोक्षो यदि प्रोक्तस्ततस्तथा।
सामर्थ्यादेव ज्ञायत कर्मणां निर्जरा मता ॥ १ ॥ __ सूत्रकार महाराजने यदि “सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय हो जाना मोक्ष है।" यह बढिया सूत्र में कह दिया है । तब तो उन्हीं पदोंये तिस प्रकार कहे विना सामर्थ्यसेही यह बात जान ली जाती है कि मध्यमें कर्मोंकी निर्जरा होना मान लिया गया है। भावार्थनिर्जरापूर्वक ही मोक्ष होती है, क्रम क्रमसेही नदी सूखती है, बालक क्रम अनुसार युवा होता है। महान् अगाध, ग्रन्थोंकी व्युत्पत्तिका लाभ कालक्रमसेही होता है। इसी प्रकार कर्मोंका क्षय भी क्रमसे निर्जरा होते सन्तेही हो पाता है । अतः निर्जराका स्वरूप अभिहित शद्वों द्वारा ही गम्यमान है । गम्यमानको पुनः कण्ठोक्त शद्वों द्वारा कह देनेपर " पुनरुक्त दोष" लग जानेकी सम्भावना है। . यदेकदेशेन कर्मक्षयो निर्जरा तेन पृथक् सूत्रं निर्जरालक्षणप्रतिपादकं न विहितमिति वेदितव्यं ।
जब कि एकदेश करके कर्मोंका क्षय होना निर्जरा है। जब कभी कर्मोंका क्षय होगा तब एक एक अंश करकेही होगा, तिस कारण निर्जराके लक्षणकी प्रतिपत्ति करादेनेवाला पृथक् सूत्र सूत्रकार महोदयने नहीं किया है । यह पूर्वोक्त शंकाका समाधान समझ लेना चाहिये।
कर्मक्षयो द्विप्रकारो भवति प्रयत्नाप्रयत्नसाध्यविकल्पात्तत्राप्रयत्नसाध्यश्चरमोत्तमशरीरस्य नारकतिर्यग्देवायुषां भवति । प्रयत्नसाध्यस्तु कर्मक्षयः कथ्यते। ..
__चलाकर प्रयत्नसे साध्य किया जाय और विनाही प्रयत्नके साध्य हो जाय। यों इन दो विकल्पोंसे कर्मोंका क्षय हो जाना दो प्रकार होता है। उन दो भेदोंमें दूसरा विनाही प्रयत्नके साध्य हो जाय ऐसा कर्म क्षय तो तद्भवमोक्षगामी उत्तम चरम शरीरवाले. जीवके नरकआयुः, तिर्यञ्चआयुः, और देवआयुः, इन तीन कर्मोंका हो जाता है। क्योंकि चरमशरीरी जीवके परभवकी आयुःका बन्ध ही नहीं होता है।