Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
४१४)
बन्धहेत्वभाव और निर्जरा इन दो पदोंका इतरेतर नामक द्वन्द्व समास कर " बन्धः हेत्वभाव निर्जरे " ऐसा पद बना लिया जाता है । तृतीया याः पञ्चमी विभक्ति के द्विवचन अनुसार ताभ्यां कर देनेपर " बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां " पद बन जाता है । इन दोनों कारणों करके कृत्स्न पानी सम्पूर्ण कर्मोंका वि यानी विशिष्ट जो कि अन्य मनुष्योंसे असाधारण होय ऐसा प्र यानी प्रकृष्ट हो रहा जो एक देश कर्मोंका क्षय हो जाना नामक निर्जरा, करके उत्कृष्ट आत्यन्तिक यानी अनन्तानन्त कालतकके लिये छूट जाना मोक्ष है । यों " कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः " इस लक्षण वाक्य के एक एक पदका अर्थ कह दिया गया है। इस सूत्र के " बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां इस पूर्व पद करके तो मोक्षके हेतुका निरूपण किया गया है। जो कि संवर और निर्जरा हैं । तथा दूसरे “ कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षः ” इस पद करके मोक्षके स्वरूपकी प्रतिपत्ति दरसाई गई है । यों
"
"
समझ लेना चाहिये ।
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
;
कर्मणां हरणान्मोक्षः ।
;
"
• नन्वत्र सप्तसु तत्त्वेषु षट्तत्त्वस्वरूपं प्रोक्तं निर्जरास्वरूपं नोक्तं । सत्यं सर्व
原
7
यहां कोई शंका उठा रहा है कि इस तत्त्वार्थशास्त्र ग्रन्थमे सात तत्त्वों में से जीव, अजीव, आस्रव बन्ध, संवर और मोक्ष इन छह तत्त्वोंका स्वरूप बहुत अच्छा कहा जो चुका है । किन्तु छठे निर्जरातत्त्वका स्वरूप नहीं कहा गया है, इसका क्या कारण है'? आचार्य कहते हैं कि यह प्रश्नकर्ताका कथन सत्य है । यावदुत्तरं न वदामि तावत्सत्यम् " जबतक हम समाधानार्थ उत्तर नहीं कह देते हैं कह रहा है, श्रोताओं पर उसका प्रभाव पड सकता हैं । अब
cc
।
तबतक शंकाकार ठीक
समझो, बात यह हैं कि
पूर्ण कर्मोंका विनाश हो जानेसे मोक्ष होता है । कर्मोंका क्षय युगपत हो नहीं सकता
F
है संचित कर्मोंका क्षय क्रमसे ही होगा । अतः विना कहे ही अर्थापत्ति प्रमाणकी सामर्थ्य से निर्जरातत्त्वका स्वरूप जान लिया जाता है । भावार्थ जो छात्र यहांतक तत्त्वार्थ शास्त्रका अध्ययन कर चुका है। उसको अनेक अवक्तव्य या अनुक्त प्रमेयोंकी प्रतिपत्ति भी हो जानेकी योग्यता है । गुरुजी महाराज सभी भावार्थोंको अपने मुखसेही कहते फिरें तो शिष्योंकी बुद्धि विशुद्ध नहीं हो पाती है । रसाढ्यव्यञ्जनोंको कितना भी भाजनों में पकाकर निष्पन्न कर दिया जाय फिर भी मुखमें लार मिलाने और स्वाद आनेके लिये दान्तोंसे चवाये जानेका कार्य शेष रखना पडता है । अतः नहीं कहे गये ।