Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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दशमोऽध्यायः
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अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अभयदान, क्षायिकलाभ आदि भी केवलपदसे अभि
प्रेत हो रहे हैं जो कि क्षायोपशमिक अल्पज्ञान, कुज्ञान, अज्ञान, अदर्शन, अनुत्साह आदि से
पृथग्भूत होनेके कारण " केवल पदद्वारा ग्राह्य हैं । अन्योंसे पृथग्भूत कर दिये गये अकेली व्यक्तिको केवल माना जाता है । मोक्ष अबस्थामें यह केवलज्ञान दर्शन आदिका आत्मलाभ हो जानेको स्वीकार करना कोई सिद्धान्तसे विरुद्ध नहीं है क्योंकि प्राचीन शास्त्रों में जीवनमुक्तोंके नौ केवललब्धियोंके प्रकट हो जानेका उपदेश पाया जाता है । भावार्थ--अरहन्त अवस्था में नौ केवललब्धियां उपज बैठती हैं । गोम्मटसारम ऐसा निरूपण है कि
" केवलणाणदिवायर किरणकला वपणा सियण्णाणो,
-णव केवललधुग्गम सुजणिय परमप्प ववएसो असहायणाणदंसणसहियो इदि केवलीहु जोगेण जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइ णिहणारिसो उत्तो
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- इसका ऐदम्यर्थ यह है कि धाराप्रवाहसे चले आ रहे अनाधि निधन आर्षग्रन्थोंमें यों कहा गया है कि सहायरहित केवलज्ञान, दर्शन आदि सहित केवली हैं । उनके क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये नौ लब्धियां प्रकट हो जाती है। यहां कोई विनीत शिष्य पूंछता है कि मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण आदिका प्रक्षय हो जाना भला किस हेतुसे सिद्ध हो चुका माना जाय ? यो प्रश्न उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं कि किसी न किसी आत्मामे ( पक्ष ) मोह आदि कर्मोंका प्रकृष्ट क्षय प्रसिद्ध हो चुका है | ( साध्यदल ) मोह आदिकी हीनताका प्रकर्ष हो रहा होनेसे ( हेतु) माणिक्य, सुवर्ण आदिमें जैसे मल, किदि आदिका सर्वथा प्रक्षय सिद्ध है । ( अन्वय दृष्टान्त ) ॥ ८ ॥ अर्थात् माणिक्य, मोती, सुवर्ण आदिमें अन्तरंग, बहिरंग मलोके प्रयोगोंद्वारा क्षयका तारतम्य होते होते अन्तमें सर्व मलोंका ध्वंस हो जाना सिद्ध है । उसी प्रकार संसारी जीव कर्मोंकी क्षीयमाणता तारतम्य रूपसे बढ रही देखी जाती है । वह अन्तमें जाकर मोहादि पूर्णक्षयको सिद्ध कर देती है । इस विषयका " दोषावरणयो हर्निर्निश्शेषात्यतिशायनात् क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्म लक्षयः इस देवागमकी कारिकाका
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