Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 435
________________ ४१० ) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे यहां मुक्तात्मा कुछ भी नहीं करनेवाला अकिंचित्कर माना गया है | अद्वैतवादियों के यहां छोटी सत्ताका अभाव होकर बडी सत्ता में मिल जाना मोक्ष कहा है । किन्तु जिनागममें अनन्तज्ञान, और सुख, वीर्य, चारित्र आदिको पुरुषार्थों द्वारा भोगनेवाला मुक्तात्मा अभीष्ट किया है। यहां, लौकिक खाना, पीना, सोना आदि क्रियाओं को मुक्तात्मा नहीं करता है । बात यह है कि कर्मोदय-जन्य खाने पीने आदि क्रियाओं में इतना पुरुषार्थ नहीं किया जाता है । जितना कि मुक्तात्माको यथा प्राप्त स्वकीय सुख, ज्ञान, वीर्य, चारित्र आदिका उपभोग करने या स्वरूपनिष्ठ होने में प्रयत्न करना पडता है | विद्यार्थीको अपनी ग्रन्थोक्त प्रमेयोंकी स्मृतियोंको धारे रहने में भारी पुरुषार्थ लगाना पडता है । तभी वह उत्तीर्ण हो पाता है । अनेक संकल्प, विकल्पों में पडे हुये और कर्मों द्वारा सताये गये संसारी जीव अपने स्तोकज्ञान, दर्शन, आत्मनिष्ठा, उत्साह, स्वल्प स्वतन्त्रता आदिका भी उपभोग नहीं कर पाते है । इस त्रैराशिक द्वारा मुक्तोंके अनन्तज्ञान आदिका अनुभव न करने में किये जा रहे पुरुषार्थका अनुमान कुछ कुछ लगाया जा सकता है । आचार्य इसी बातको कह रहे हैं कि जीवके सर्वथा अभाव तथा अकिंचित्करपनका व्यवच्छेद हो जाने के समान आदि सूत्र द्वारा अज्ञान स्वभावका व्यवच्छेद कर दिया जाता है । और तिसी प्रकार पूर्वाचार्यप्रणीत अन्य ग्रन्थों में कहा जा चुका भी है कि जीवके अन्तरंग द्रव्य भाव मलोंका क्षय हो जानेसे स्वात्मलाभ हो जाने को ही गणधरदेव मोक्ष मानते हैं । जीवका अभाव हो जाना मोक्ष नहीं है, जीवका अचेतन हो जाना भी मोक्ष नहीं है । तथा व्यर्थ अकिञ्चित्कर कूटस्थ चैतन्य मात्र हो जाना भी मोक्ष स्वरूप नहीं है । अर्थात् इन तीनों अवस्थाओं में निजात्मस्वरूपका लाभ नहीं हो पाया है । प्रत्युत अपनी गांठकी छोटी मोटी सम्पत्ति ही खोई जा चुकी है । इस प्रकार प्रथम सूत्रसे आत्मलाभ और द्वितीय सूत्रसे कारणों द्वारा प्रतिबन्धकोंका दूर हो जाना मोक्षका स्वरूप कहा गया है । यहां कोई प्रश्न उठाता है कि यहां प्रथम सूत्र में कहे गये केवल पदका फिर क्या अर्थ लिया गया है ? बताओ । इसके समाधानार्थ पूर्व कारिकाओं में कहे गये अर्थकाही आचार्य महाराज विवरण करते हैं कि शेषरहित सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे उत्पन्न हुआ । प्रशान्तिस्वरूप अनन्तसुख यहां केवलपदका वाच्यार्थ है । जो कि सुख कर्मजन्य दुःखोंसे बहुभाग मिल रहे सांसारिक सुखसे रहित है । तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंके क्षयसे उपजा

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