Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
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पूर्ववर्त्ती सामायिक, छेदोपस्थापना इन दोनों संयमोंमें भी प्रवर्त रहे हैं । निर्ग्रन्थ और स्नातक साधुवर्य तो अकेले यथाख्यात संयममें प्रवृत्ति करते हैं । उक्त पांचों निर्ग्रन्थोंका यदि श्रुत अनुयोग में विचार किया जाय तो यों व्यवस्था है कि पुलाक, वकुश और प्रतिसेवनाकुशील ये उत्कर्ष करके अभिन्नाक्षर दशपूर्व मात्रमें प्रवृत्ति करते हैं । ये ग्यारह अंग दशपूर्व से अधिक नहीं जान पाते हैं । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ तो उत्कर्षेण ग्यारह अंग और चौदह पूर्वपरिमित शास्त्रज्ञानमें प्रवेश कर जाते हैं । जघन्यं रूपसे पुलाकों का श्रुतज्ञान आचारवस्तु नामका विशेष प्रकरण है । वकुश आदि यानी वकुश, कुशील और निर्ग्रन्थोंका जघन्य श्रुतज्ञान आठ प्रवचनमातायें हैं । स्नातक मुनिवर्य तों श्रुतज्ञानको पारकर दूरकर चुके हैं क्योंकि केवलज्ञान दशामें दूसरा ज्ञानस्थान नहीं पाता है । तीसरी प्रतिसेवनाका व्याख्यान यों है कि पुलाक मुनिके अहिंसादि पांच मूल गुण महाव्रतों में और छठे रात्रिभोजन त्यागव्रतमें दूसरोंके अभियोगसे बलात्काररूपेण प्रतिसेवना कदाचित् संभव जाती है । उपकरणवकुश मुनिके उपकरणोंके संस्कार करसे प्रतिसेवना हो जाती है । शरीर वकुश यतिके शरीरके संस्कार करने के अनुसार प्रति-" सेवना हों जाती है, प्रतिसेवना कुशीलके नो मूलगुणोंमें नहीं होकर उत्तर गुणही प्रतिसेवना होती है । कषायकुशील आदिक अर्थात् कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये प्रतिसेवनासे रहित हैं | इनको कोई दोष नहीं लग पाता है । चौथे तीर्थको यों बखानिये कि संपूर्ण तीर्थंकरों के समयमें और उनके वारोंमें ये पांचो प्रकारके निर्ग्रन्थ हो जाते हैं। पांचवे लिंग अनुयोगकी यों व्याख्या है कि संपूर्ण मुनियोंका द्रव्यलगही है, द्रव्य स्त्री या नपुंसक कथमपि महाव्रतोंको नहीं धारते हैं, अतः सभी निर्ग्रन्थ द्रव्य -' लिगी प्रतीति कर पुल्लिंगी हैं । हां, भावलिंगकी प्रतीति अनुसार विकल्पनीय हैं । किसी के भाववेद पुल्लिंगका उदय है, अन्य मुनि भववेदक अपेक्षा स्त्रीवेदी है, तीस - " के कार्यरहित होकर नपुंसक वेदका उदय भी संभवता है जो कि नौमे गुणस्थान" संवेद भागतक पाया जा सकता है। लेश्या तो फिर उस पुलाक मुनिके उत्तरवर्तिनी' पीत, पद्म, शुक्ल तीन हैं । वकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनियोंके छहों भी लेश्यायें हैं । कषायकुशील और परिहारविशुद्धिसंयमवालेके परली ओर की तीन शुभ लेश्यायें है । सूक्ष्मसांपराय संयमी और निर्ग्रन्थ स्नातक मुनियोंके शुक्लही लेश्या होती है। चौदहवें गुणस्थानवर्त्ती अयोगी महाराज तो लेश्यारहित हैं। सातवें उपपाद अनुयोगकी विकल्पना
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