Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मिल सके तथा पुनः कर्मसम्बन्धा न हो जाय इसके लिये मुक्त जीवोंका स्वाभाविक उत्तम तप नामक पुरुषार्थ होता रहता है।
देखो भावात्मक अनुजीवी और अभावात्मक प्रति-जीवी गुणों, तथा अनेक स्वभावोंका पिण्ड ' वस्तु' है। विद्वान् पुरुष इस सिद्धान्तको भले प्रकार जानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ पर छ: स्थानवाली हानि वृद्धिको ले रहे भाव गुणोंके समान अविभाग प्रतिच्छेदहीन ये प्रागभाव, ध्वंस, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव चारों अभाव भी तदात्मक होकर लद रहे हैं। कोई भी वस्तु निजस्वरूप इनके बोझको उतार कर फेंक नहीं सकती है ! प्रागभावका तिरस्कार कर यदि पांचसौ वर्ष आगेकी औलादोंको आज . पैदा कर लिया जाय तो इस अन्नके दुर्लभ युगमें क्या भरपूर सुभिक्षमें भी आपके हिस्से में एक अन्नका दाना भी न पडेगा तथा रहने के लिये एक अंगुल स्थान भी बांटमें नहीं आयगा। ' कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निन्हवे ' । ( समन्तभद्र ) इसी प्रकार पांचसौ वर्षके पूर्ववर्ती मुर्दाघाटों, श्मशानों या करिस्तानोंको जगा दिया जाय तो पुरखा लोग अन्न जलके कष्टये दुःखी होकर हत्याकांड मचा देंगे। जैसे कभी (प्राचीन समयमें) बारहवर्षके अकालमें लोग दूसरोंके पेटमेंसे अन्न निकालकर खा लिया करते थे । 'प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ' ( समन्तभद्र ) बात यह है कि आगे होनेवाले पदार्थों के प्रागभावोंको वैसाही निषेध रूपमें बना रहने दो इसपर खुशियां मनाओ । तथा स्वकीय पुरखाओंको भी ध्वंसकी मृत्यु निद्रामें सोता रहने दो तभी आप हम चैनकी वंशी बजा सकते हैं । यों प्रागभाव और ध्वंस का मानना अत्यावश्यक है तथैव अपने सिरपर या परोसी हुई थालीमें सर्प व्याघ्र आदिका अभाव बना रहने दो अन्यथा इस अभावका कतिपय क्षणके लिये भी यदि तिरस्कार कर देवेंगे तो उसी क्षण फण उठाये हुये सर्प, दहाडता हुआ बघेरा सिरपर चढ बैठेगा। थाली कालचक्र बन जायगी। यों प्रत्येक वस्तुमें स्वातिरिक्त अनन्तानन्त पदार्थों स्वरूप नहीं परिणत हो जानेका उद्देश्य रख जम कर बैठ गये असंख्य अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभावकी भीतर भीतें पड़ी हुई हैं।
' स्वपरादानापोहनव्यवस्थापाद्यम् खलु वस्तुनो वस्तुत्वम् ' ( राजवार्तिक ) अपने निज तत्वको पकडे रहना और परकीय उपाधियोंका परित्याग करते रहना ही वस्तुका वस्तुत्व है, यहां प्रयोजन इतना ही है कि कर्मबन्ध पुन। नहीं बन बैठे एतदर्थ