Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
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आगे पुलाक आदि मुनिवरोंको लेश्या उपपाद आदिका प्रतिपादन कर मंगलाचरणपूर्वक द्वितीय आन्हिकको समाप्त किया है। - इस श्लोकवार्तिक महान् ग्रन्थका अध्ययन, अध्यापन इन पचासो वर्षोंमें क्वचित्, कदाचित् ही हुआ है । शुद्धलिपि के पुस्तकका मिलना भी अतीव दुर्लभ हो गया है। टीका, टिप्पण्णी तो नाममात्र भी उपलब्ध नहीं है। कर्नाटक देश या किसी प्राचीन भण्डारमें कोई ताडपत्रपर लिखी हुई या किसी प्रकाण्ड विद्वान् के द्वारा निरीक्षित की गई पुस्तक मिले तो गुणग्राही विद्वान् पाठ या देशभाषाको शुद्ध करते हुये सर्वज्ञ आम्नाय तत्त्वार्थीका यथार्थ श्रद्धान् कर लेवें । " नहि सर्वः सर्ववित् " नमोऽस्त्वभिमतसिद्धिकयै स्याद्वादवाण्यै " कतिपयदिनों पश्चात् प्रयत्न करके ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन प्रतिके लेखको मूडबिद्रीसे मंगाया गया तदनुसार " संयमश्रुतप्रतिसेवना " सूत्रकी श्लोकोंमें रचित वार्त्तिकों और उनके भाष्यभूत अलंकारका अविकल हिन्दी अनुवाद कर दिया गया है । अब सभी संशयों का निराकरण होकर आत्मा आल्हादित हो जाता है । दिगम्बर विद्वान् दिगम्बरसे कथमपि विचलित नहीं हो सकते है । " प्रीणन्तु सन्तः,
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इति श्री विद्यानन्द स्वामिविरचित तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकार नामक महान् ग्रन्थकी आगरामण्डलांतर्गत चावली ग्रामनिवासि श्री हेतुसिंहसुत सहारनपुर वास्तव्य माणिकचन्द्रकृत देशभाषामय " तत्त्वार्थं चिन्तामणि " नामकी टीकामें नौमा अध्याय परिपूर्ण हुआ ।
ध्याने हित्वातरौ समितिमुपगता देशिकं संवरं ये, ध्यायन्तो धर्म्यशुक्ले परिषहजयतो भावनेद्धाष्टशुद्धीः, कुर्वाणाः स्वात्मपलादगणितगुणितां निर्जरा कर्मणान्ते निर्ग्रन्थाः संयमाद्यैः स्वपरहितरताः पान्तु भाज्या स्त्रिगुप्ताः ॥ १ ॥
इति नवमोऽध्यायः ॥
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