Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
२९९)
आज्ञा, अपाय, आदिकी विचारणा के लिये इस सूत्र में धर्म्यध्यान चार प्रकार कहा गया है। आर्तध्यान और रौद्रध्यानसे सर्वथा रीते हो रहे ज्ञानी जीवों करके वह ध्यान करना चाहिये, जिस धर्म्यध्यानका स्वभाव अनेक शुभ चिन्तनाये करना हैं ।
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उन धर्म्यध्यानों में पहिले आज्ञाविचयमें कही गयी आज्ञा तो हेतुवाद और उससे इतर अहेतुवाद यानी आगमवाद इन भेदोंसे दो प्रकार है। भव्य विनीत शिष्यों के मानसिक विचारोंके अधीन प्रवृत्ति हो जानेके कारण सर्वज्ञकी आज्ञाका विचय किया है । अर्थात् " भविभागनवश जोगे वसाय सर्वज्ञकी वचन प्रवृत्ति में भव्यों का भाग्य भी कारण पड जाता हैं । वीतराग, सर्वज्ञ हितोपदेशक, अर्हत परमेष्ठी अन्यथा भाषण नहीं करते हैं। किसी तत्त्वकी सिद्धिके लिये हेतु या दृष्टान्त मिल जाय तो अच्छा है । नहीं तो अप्रमित प्रमेय मात्र आगमगम्य है । लोकमें भी प्रत्यक्ष प्रमेयसे अनन्तगुणा प्रमेय आप्त पुरुषोंसे गम्य हो रहा है । एक अल्पज्ञ प्राणी अपने स्तोक जीवन में कितने पदार्थों का प्रत्यक्ष कर सकता है । अपने जीवनभर में थोडेसे पदार्थों को छूता है । अल्पीयान् पदार्थों का स्वाद रसनासे लेता है, बहुत थोडे वर्तमान पदार्थों को सूंघ पाता है, मोटे मोटे स्वल्प पदार्थों को देख लेता है । अपने पूरे गांम या प्रत्येक घर अथवा स्वशरीर अवयवोंको ही नहीं देख पाता है । कतिपय स्थूल शब्दों को सुन लेता है, परिमित सुखदुःख, इच्छा आदि आत्मीय पदार्थोंका मानसिक प्रत्यक्ष कर लेता है । अविनाभावी हेतुओं से अत्यल्प साध्योंका अनुमान कर लेता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान. तर्कव्दारा कितने ही पदार्थोंको अविशद जान लेता हैं। शेष बहु भाग प्रमेय आगमगम्य है । इससे अनन्तगुणा अनभिलाप्य अर्थ मात्र केवलज्ञान गोचर हैं । सर्वत्र प्रत्यक्ष या हेतुवाद लगाने का आग्रह करना विवेकशील पुरुषोंको उचित नहीं है, आप्तवाक्यको प्रमाण माने विना गमार, गंगे और व्याख्याता विव्दानमै कोई अन्तर नहीं माना जा सकता है । यही नियत पुरुष तेरा पिता हैं। इसमें यथार्थं वक्त्री माताका वाक्य ही प्रमाण है । अल्पज्ञोंके प्रत्यक्ष और अनुमान वहां फेल हो जाते हैं। हाँ, कतिपय प्रमेयों मे प्रत्यक्ष अनुमान, युक्तियाँ, उदाहरण, विज्ञान, ( साइन्स) तर्क भी प्रवर्त जाते हैं । अतः आप्तकी उक्त आज्ञाका विचार करना पडता है।' आप्त पुरुष विनम्र शिष्योंके हित अनुरूप यथार्थ सत्यतत्वका उपदेश करते हैं । " विनेयविसंवादने तेषां प्रयोजनाभावात् " तद्विचयाय स्मृतिसमन्वाहारो द्विविध इत्याज्ञाविचयध्यानं द्वेधा । तत्रागमप्रामा प्यादर्थावधारणमाज्ञाविचयः, सोयमहेतुधादविषयोननुमेयार्थगोचरार्थत्वात् । आज्ञाप्रका - शनार्थो वा हेतुवादः । सामर्थ्यादयमप्याज्ञाविचयः । कः पुनरपाय इत्याह ।