Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
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अतः छहों लेश्यायें नहीं मानी गई हैं किन्तु परली ओरकी तीन शुभ लेश्यायें ही हैं। भावार्थ-कोई छोटे अल्प पढे हुये छात्र भी बड़े और अधिक पढ़े हुये छात्रकी अपेक्षा मन्दकषाय देखे गये हैं, कोई कोई अजैन भी जैनोंकी अपेक्षा अल्पकषाय समझे गये हैं । परिणामोंकी विचित्र जातियां हैं । धन, ज्ञान, बल आदिके आधिक्यको धार रहे जीवोंसे किसी किसी निर्धन, मूर्ख, निर्बलकी आत्मा उन्नत कार्योंको कर रही देखी गई है। यों विचार कर परिणामोंकी व्यवस्थाको अतयं समझ लिया जाय ।
कपोततेज:पद्मशुक्ललेश्याचतुष्टयं कषायकुशीलस्येदं ज्ञातन्यं । दातव्यं दानीयमितियावत् । कषायकुशीलस्य या कापोतलेश्या दीयते सापि पूर्वोक्तन्यायेन वेदितव्या तस्याः संज्वलनमात्रान्तरंगकषायसद्भावात् परिग्रहः । शक्तिमात्रसद्भावात्सूक्ष्मसांपरायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च केवला शुक्लव लेश्या वेदितव्या । अयोगिकेवलिनां तु लेश्या नास्ति ।
कषायकुशील सामक मुनिके कपोत, तेजः, पद्म, और शुक्ल यों चारोंही लेश्यायें सम्भव रही समझनी चाहिये । इसका फलितार्थ यह निकला कि कषायकुशीलके लिये उक्त चारों लेश्यायें दातव्य हैं, यानी देने योग्य हैं। कषायकुशील मुनिको जो जो कापोत लेश्या दी जाती है। वह भी पूर्वोक्त नीति अनुसारही समझ लेनी चाहिये। अर्थात् परिग्रहके संस्कारका परिपूर्ण क्षय नहीं हुआ है । अतः शुभ रागपूर्वक कदाचित् कपोत लेश्या बन बैठती है। केवल तीव्र संज्वलन अन्तरंग कषायका सद्भाव रहनेसे उस कपोत लेश्याके योग्य परिग्रह है । बहिरंग 'द्रव्य रूपसे कोई परिग्रह नहीं पाया जाता है । फिर भी “ कषायों दयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या " असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानों में से कतिपय कपोतलेश्या योग्य परिणाम हो जानेके कारण शक्तिमात्रका सद्भाव है । परिहारविशुद्धि संयमवाले मुनिके भी पिछली चार लेश्यायें हो सकती हैं । सूक्ष्म सांपरायसंयमी तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक मुनियोंके केवल अकेली शुक्लही लेश्या समझनी चाहिये । चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवलज्ञानियोंके तो लेश्या नहीं है जब कि उनके कषाय और योगका सर्वथा अभाव हो चुका है। " विशेष्यविशेषणोभयाभावप्रयुक्तो विशिष्टाभावः " ॥