Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 395
________________ ३७०) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे ___उत्कृष्टस्थितिष्वुत्कृष्टतया पुलाकस्य सहस्त्रारदेवेष्वष्टादशसागरोपमजीवितेषूपपादो भवति । वकुशप्रतिसेवना कुशीलयोविंशति सागरोपमस्थितिषूपपाद आरणाच्युत स्वर्गयोर्भवति । सर्वार्थसिद्धौ तु कषायकुशील निर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिशत्सागररोपमस्थितिष देवेषूपपादो भवति । जघन्योपपादोऽशेषाणामपि सौधर्मकल्पे । द्विसागरोपमस्थितिष देवेषु वेदितव्यः । स्नातकस्य परमनिर्वृत्तत्वादुपपादो निर्वाणं। सूत्रोक्त छह अनुयोगोंकी विचारणा हो चुकी है। अब ग्रन्थकार पुलाक आदि मुनियोंके सातवें उपपादका विचार करते हैं। मरकर उत्तरभवकी उत्पत्तिको यहां उप. पाद माना गया है। पुलाक मुनिका उत्कृष्टपने करके उपपाद तो उत्कृष्ट स्थिति. वाले अठारह सागरोपम कालतक वहां जीवित बने रहनेवाले सहस्त्रार स्वर्गोपदेवोंमें होता है। तथा वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनियोंका आरण और अच्युत स्वर्गौम बाईससागरोपम स्थितिको धारनेवाले देवोंमें उपपाद होता है। सर्वार्थसिद्धि विमानमें तो कषायकुशील और निर्ग्रन्थ मुनियोंका तेतीस सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें उपपाद ( प्रेत्यभाव ) होता है ! शेषरहित सम्पूर्ण पांचों भी पुलाकादि मुनिवरोंका जघन्य रूपसे उपपाद हो जाना तो सौधर्म ऐशान दो कल्पोंमें दो सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें समझ लिया जाय । क्योंकि--सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर कल्पोपपन्न या कल्पातीत वैमानिक देवोंमें ही उपजता है । जघन्य कोटिके वैमानिक भला सौधर्म ऐशान स्वर्गवासी देवही हो सकते हैं । पूर्व में मनुष्य आयुःको बांध चुका जीव तो महाव्रतही नहीं ले पायेगा । अव्रती मरकर भोगभूमिमें जावेगा, स्नातक मुनि तो परनिर्वाणको प्राप्त हो चुके हैं। इस कारण उनका उपपाद निर्वाण यानी मोक्ष हो जाना ही हैं । संसारमें उपजनाही इनका वजित हो गया है। __ स्थानान्यसंख्येयानि संयमस्थानानि तानि तु कषायकारणानि भवन्ति । कषायतमत्वेन भिद्यन्ते। इति कषाय कारणानि तत्र सर्वनिकृष्टानि लब्धिस्थानानीति कोर्थः । संयमस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोर्भवन्ति । तौ च समकालमसंख्येयानि संयमस्थानानि व्रजतः । ततस्तदनन्तरं कषायकुशीलेन सह गच्छन्नपि पुलाको व्युच्छिद्यते निर्वर्तत इत्यर्थः। ततः कषायकुशील एकाक्येवाऽसख्ययानि संयमस्थानानि गच्छति । तदनन्तरं कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलवकुशाः संयमस्थापनान्यसंख्येयानि युगपत्सह गच्छन्ति प्रान्पुवन्तीत्यर्थः । तत्पश्चाद्वकुशो निवर्तते व्युच्छिद्यत इत्यर्थः । ततोऽपि प्रतिसेवनाकुशील:

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