Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
३०१)
यों निरुक्ति कर दूसरे धर्म्यध्यानके भी दो अर्थ हो जाते हैं।
सस्य विचयो धर्म्यध्यानं द्वितीयं । अथवा सन्मार्गापायविचयः सर्वज्ञोपदेशपरामुखजनापेक्षया सम्प्रत्येयः असन्मार्गापायसमाधानं वा तदपेक्षयैव । कः पुनविपाक इत्याह- .
उस असन्मार्गसे अपायका विचय यानी विचारणार्थ करना दूसरा धय॑ध्यान हैं । अथवा सर्वज्ञद्वारा उपदेशे गये श्रेष्ठ मार्गसे पराङ्मुख हो रहे प्राणियोंकी अपेक्षा करके उस सन्मार्गसे अपाय हो रहे पनका विचार भी दूसरा धर्मध्यान है । यह समीचीन प्रतीति कर लेना चाहिये । असन्मार्गसे अपाय (वियोग) कर उनको श्रेष्ठ मार्गमें समा. धान करना भी उन मिथ्यादृष्टि जीवोंकी अपेक्षा करके ही समझा जाय, इस प्रकार दूसरे धर्म्यध्यानकी भी दो प्रक्रियां हो सकती है।
फिर तीसरा विपाक नामक धर्म्यध्यान क्या है ? उसका लक्षण कहो ऐसी आकाँक्षा प्रवतंनेपर विनीत शिष्यके सन्मुख ग्रन्थकार अग्रिम वात्तिकको व्यक्त समा धानार्थ कह रहे हैं।
विपाकोनुभवः पूर्व कृतानां कर्मणां स्वयं । जोवाद्याश्रयभेदेन चतुर्थो धीमतां मतः ॥ ४ ॥
पूर्व कालोंमें स्वयं उपार्जन किये जा चुके ज्ञानावरण आदि कर्मोंका फलानु भवन विचारते रहना तीसरा विपाक धर्म्यध्यान है । तथा जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंके अधिकरण हो रहे आकाशके भेद, प्रभेद करके अनादि सिद्धलोक रचनाका चिन्तन करना चौथा संस्थानविचय धर्म्यध्यान है। विचारशील बुद्धिमानोंके यहाँ ' त्रिलोकसार' अनुसार लोकरचना मानी गयी है, उसका एकाग्र होकर ध्यान लगाया जाता है ।
ततः कर्मफलानुभवनविवेकं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः । स च प्रपञ्चतो गुणस्थानभेदेन कर्मप्रकृतीनामुदयोदीरणचिन्तनेन परमागमात्प्रत्येतव्यः। लोकसंस्थानस्वभावावधान संस्थानविचयः । कोऽसौ लोक इत्याह- .
उस विपाकविचय ध्यान अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावोंको निमित्तपाकर हुये कर्म फलके अनुभव विचारोंके प्रति एकाग्रचित्त लगाये रहना विपाकविचय है । और वह विपाकविचय तो गुणस्थान, मार्गणाके भेद करके कर्मकी मुल, उत्तर प्रकृतियोंके उदय, उदीरणा अनुसार चिन्तन करके हो रहा सन्ता विस्तारके साथ परमो