Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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(३३९)
भग्नव्रते वृत्तावतिप्रसंग इति चेन्न, रूपाभावात् । निर्ग्रन्थरूपं हि यथाजातरूपमसंस्कृतं भूषावेशायुधविरहितं गृहस्थेषु न सम्भवतीति । अन्यस्मिन् 'संरूपेतिप्रसंग इति चेन्न दृष्ट्यभावात् ।
नवमोध्यायः
यहां कोई पुनः कटाक्ष करता है कि क्वचित् कदाचित् व्रतोंका भंग कर चुके मुनिमें भी यदि निर्ग्रन्थ शद्वकी वृत्ति मानी जावेगी जैसे कि " अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनू " चाहे किसान या हत्यारा पण्डा क्यों न हो सभी ब्राम्हण मान लिये जाते जाते हैं । तब तो अतिप्रसंग दोष लग बैठेगा अर्थात् श्रावक भी संग्रहनय अनुसार निर्ग्रन्थ बन बैठेगा ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कटाक्ष नहीं करना क्योंकि श्रावकमे ग्रंथरहित दिगंबर स्वरूपका अभाव है । जब कि वेषकी प्रधानता है । जैसे तत्काल जन्म लिये बालकका रूप परिग्रह रहित है । उसी प्रकार शारीरिक संस्कारोंसे रहित और अभिप्रायपूर्वक भूषण, आवेश, आयुध आदिसे विशेषरूपतया रहित हो रहा निर्ग्रन्थ स्वरूपही गृहस्थोंमें नहीं सम्भवता है । तत्काल उपजे मूर्ख बच्चे में कीट, पशु, पक्षियोंके सदृश मात्र बहिरंग ग्रंथ नहीं है किन्तु अन्तरंगमें तीव्र परिग्रह विद्यमान है । केवल मांग काढना, बाल सम्हालना आदि संस्कारोंसे रहित और वस्त्र आदिसे रहित होनेके कारण मुनिको बालक की उपमा दे दी जाती है। श्री समन्तभद्राचार्यने अरनाथ भगवान्की स्तुति करते हुये बृहत् स्वयंभूस्तोत्रमें लिखा है कि भूषावेशायुधत्याग विद्यादमदयापरम्, रूपमेव तवाचष्टे धीरदोषविनिग्रहन् " हे धीर, वीर, भगवान् आपका भूषण आवेश ( क्रोध, मान का जोश ) हथियारका परित्याग कर रहा और तत्त्वविद्या, इन्द्रियदमन, दयामें तत्पर हो रहा आपका बहिरंग रूपही दोषोंके विनिग्रहको कह रहा है । यों दिगंबर रूप नहीं होनेके कारण श्रावकोंमें निर्ग्रन्थपना नहीं है । इसपर पुनः कोई तर्क उठावे कि यदि बहिरंगरूप (वेष) की प्रधानता रक्खी जायगी तब तो अन्य भी नंगे परिव्राजकों या दरिद्र नग्न पुरुष, पशु, पक्षियोंमें भी निर्ग्रन्थपनकी सदृशता हो जानेपर निर्ग्रन्थताके व्यवहार हो जानेका अतिप्रसंग हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उन नंगे पुरुष, पशु पक्षियों में सम्यग्दर्शनका अभाव है । सम्यग्दर्शनके साथ जहां दिगंबर दीक्षापूर्वक नग्नरूप विद्यमान है । उनमें निर्ग्रन्थपनका व्यवहार है । केवल नग्नवेशीको ही निर्ग्रन्थ नहीं मान बैठना चाहिये । विशिष्टबुद्धिः विशेष्यविशेषण"
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