Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 380
________________ नवमोध्यायः ३५५) आदि दोषोंकी उत्पत्ति नहीं हो पाती है। वस्त्ररहित मुनिके ध्यान और स्वाध्यायमें कोई विघ्न नहीं पडता है जब कि वस्त्रधारीके सुई, डोरा कपडा, रेअ, साबुन आदिके रखने, ढूंढने या सींवने, धोने आदि क्रियाओंमें व्यग्रता हो जानेसे उन ध्यान और स्वाध्यायमें विघ्न हो रहा है । परिग्रहरहित मुनिके तिस प्रकार चित्तमें आकुलता उपज जानेका कोई कारण नहीं है । दिगंबर मुनिके आगमसूत्र और अर्थकी पुरुषार्थपूर्वक विचारणाओंमें कोई विघ्न नहीं पडता है । स्वाध्याय और ध्यानकी भावना प्रकृष्ट बनी रहती है । अचेलतासे चौथा गुण परिग्रहका त्याग हो जाना भी प्राप्त हो जाता है । देखिये, अन्तरंग लोभ आदि परिग्रहके त्यागको मूल कारण पाकर बहिरंग वस्त्र, दण्ड आदि परिग्रहका त्याग हुआ करता है। जिस प्रकार धान्यसे भीतरी तुष (भसी) का निराकरण करना अभ्यन्तर मलके दूर होनेका उपाय है। भीतरकी तुषसे रहित हो रहा धान नियमसे शुद्ध हो जाता है। हां, बाहरकी भुसी निकल जानेपर भी अन्तरंग भुसी का निकलकर धान्यकी शुद्धि होना विकल्पनीय है। यों वस्त्रधारीके अन्तरंग और बहिरंग दोनों शुद्धियां नहीं हैं। किन्तु वस्त्ररहित मुनिके नियमसेही इस प्रकार विशुद्धि होना भजनीय है । भावार्थ--वस्त्ररहितके बहिरंग शुद्धि तो है ही अन्तरंग शुद्धि होय भी नहीं भी होय, परन्तु सवस्त्र परिग्रहहीके दोनों शुद्धियां नियमसे नहीं हैं। वस्त्रसहित मनुष्यमें रागद्वेषरहितपना गुण नहीं पाया जाता है । क्योंकि वस्त्रधारी जीव मनोनुकूल सुन्दर वस्त्रमें अनुरागी हो जाता है। और मनः प्रतिकूल असुन्दर वस्त्रमें द्वेष करने लग जाता है। बहिरंग द्रव्योंका अवलम्ब पाकर जीवोंके राग, द्वेष उपज जाते हैं । परिग्रहके नहीं होनेपर वे रागद्वेष नग्न साधुके नहीं उत्पन्न होते हैं। पांचवी बात एक यह भी है कि साधुका शरीरमें आदर नहीं करना बढिया गुण है। क्योंकि शरीरमें आदर करनेकी अधीनतासे ही जीव नियमसे असंयम और परिग्रह पकडने में प्रवर्त्तते हैं। किन्तु वस्त्ररहित मुनिने उस शरीरका आदर छोड दिया है । वायु, घाम, शीत, वर्षा आदि की परीषहें सहनेसे वे धीर, सहनशील हो गये हैं। अपनी आत्माको वशमें रखना भी साधुका छठा महान् गुण है । देशान्तरको गमन करना, यात्रार्थ जाना, आदि कर्तव्योंमें किसी सहायककी प्रतीक्षा नहीं करनी पडती है । जिस मुनिने संपूर्ण परिग्रहोंको छोड दिया है। प्रतिलेखन केवल पिच्छिकाको ग्रहणकर पक्षीके समान निर्द्वन्द चला जाता है । जो वस्त्र या परिग्रहोंसे सहित है । वह मनमें सहायकोंका अभिलाषुक होकर किस

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