Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
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विशेष रूपेण शास्त्रोंमे कहा गया है। छठे और सातमें गुणस्थानवर्ती मुनिके धर्म्यध्यान स्पष्ट रूपेण विद्यमान हैं। हाँ, पाँचमे गुणस्थानवर्ती संयतासंयत श्रावकके एक देश करके धर्म्यध्यान हो जाता है। किन्तु चौथे गुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिके तो धर्म्यध्यानकी योग्यता मात्र है। जिन किन्हीं पण्डितों करके चौथे गुणस्थानमें खोटा ध्यान कहा जा रहा है, वह भी योग्यता मात्रसे हैं। चौथे, पांचवे, गुणस्थानोंमें रौद्रध्यान और छठे गुणस्थान तक आर्तध्यान सम्भावित हैं । यों चौथेमें दुर्ध्यानकी मात्र योग्यता है । कदाचित् प्रमादकी तीव्रता हो जानेसे दुलन बन बैठते हैं । अतः चौथे; पांचवे, घटे, सातमे गुणस्थानोंमें धर्म्यध्यान होना सम्भवता है ।
धय॑मप्रमत्तस्येति चेन्न, पूर्वेषां निवृत्तिप्रसंगात् इष्यते च तेषां सम्यक्त्वप्रवाद्धम्यध्यानं । उपशांतक्षीणकषाययोश्चेति चेन्न, शुक्लाभावप्रसंगात् तदुभयं तत्रेति चेन्न, पूर्वस्यानिष्टत्वात् । धम्यश्रेण्योर्नेष्यते ततस्तयोः शुक्लमेव ।
___ यहां कोई अविचारपूर्ण वादी पक रहा रहा है कि धर्म्यध्यान तो सातमे गुणस्थानवर्ती प्रमादरहित मुनिके ही होता है। चौथे, पांचवे, छठेमें धर्म्यध्यान नहीं, भले ही आर्त, रौद्र हो जाय । आचार्य कहते हैं कि यह तो मन्तव्य उचित नहीं है। क्यों कि सातमैसे पूर्वके चौथे, पांचवे, छटे, गूणस्थानवालोंके धर्म्यध्यान होनेकी निवत्तिका प्रसंग आजायगा। जब कि उन असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, और प्रमत्तसंयत आत्माओंके भी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे धर्म्यध्यान हो जाना अभीष्ट किया गया है । अतः सातमे गुणस्थानवर्तीके ही धर्म्यध्यान होनेका एकान्त हठ करना समुचित नहीं है। पुनः यहां कोई कह रहा है कि अप्रमत्तसे पूर्वोके समास परली ओरके ग्यारहमे गुणस्थानी उपशांतकषाय और बारहमे गुणस्थानी क्षीणकषाय आत्माओंमे भी धर्म्यध्यान ही जाओ सम्यक्त्वका प्रभाव हेतु तो वहां विद्यमान है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि ग्यारहमे, बारहमे गुणस्थानोंमे धर्म्यध्यान मान लेनेपर वहां शुक्लध्यानके अभावका प्रसंग आजावेगा। सर्वज्ञ आम्नाय प्राप्त ग्रन्थोंमें छद्मस्थ वीतरागके शुक्ल. ध्यानका होना अभीष्ट किया है।
_ यदि इसपर कोई वैनयिक सम्प्रदायके समान यो कहे कि वे धर्म्य, शुक्ल दोनों ही वहां ग्यारहम, बारहमे गुणस्थानोंमे मान लिये जाय, आचार्य कहते है कि यह तो ठीक नहीं है। क्योंकि शुभ दो ध्यानोंमे पूर्ववर्ती धर्म्यज्ञानको वहां इष्ट नहीं किया गया है।