Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थदलोकवातिलंकारे
क्षय केवलज्ञानीका सदा विद्यमान है जो कि छद्मस्थोंसे भी अधिक ध्यान लग जानेकी पुष्टिका कारण है। तीसरी बात यह भी है कि पहिलेसे लेकर दशवें गुणस्थानतकके उन मोहसहित जीवोंके जिस प्रकार एक प्रधान अर्थमें ज्ञानधाराकी वृत्ति हो जाती है। जो कि मुख्य ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार अनन्त पर्यायोंको धार रहे प्रत्येक अनन्ते द्रव्योंमें केवलज्ञानीके ज्ञानकी प्रवृत्ति क्यों नहीं एकाग्रवृत्ति कही जायगी ? अर्थात् एक प्रधान अर्थको जाननेवाला यदि ध्यानी कहा जा सकता है। तो अनन्तानन्त पर्यायोंवाले अनन्तानन्त द्रव्योंको युगपत् जाननेवाला केवलज्ञानी तो बढिया सुलभतासे ध्यानवान् है। इस प्रकार विचारशील बुद्धिमानों करके निश्चयनयसे भी केवलज्ञानीके ध्यान मानना चाहिये । केवलज्ञानीको मुख्यरूपसे ध्यान हो जानेका निषेध करना योग्य नहीं है। प्रकर्षरूपेण स्पष्ट स्वरूप संपूर्ण तत्त्वार्थोंके वेत्ता केवलज्ञानियोंके प्रधान यानी मुख्यध्यान है, उपचरित नहीं।
सयोगकेवली ध्यानी यदि धर्मोपदेशना । कथं ततः प्रवर्तेतेत्येके तत्राभिधीयते ॥ २५॥ अन्तर्मुहूर्तकालं वा ध्यानस्यानेकवत्सरं । नैकाग्यं केवलिध्यानं प्रसिद्ध तत्त्वदेशिनाम् ॥ २६ ॥ तत एव च ते सिद्धाः कृतकृत्या जिनाधिपाः। रतूयन्ते सिद्धसाधर्म्यात्सदेहत्वेपि धधिनैः ॥ २७॥ अयोगित्वसमुद्भतेः पूर्वमन्तर्मुहूर्तमा । तृतीयं ध्यानमाख्यातं वाक्प्रवृत्या विवर्जितं ॥ २८ ॥
वाक्कायवृत्तिसद्भावे यथा ध्यानी न मादृशः । . . . . तथाहन्निति तस्यास्तूपचाराद्ध्यानदेशना ।। २९ ॥
- यहाँ कोई शंका उठा रहे हैं कि तेरहवें गुणस्थानमें सयोग केवलज्ञानी महाराज यदि ध्यान लगा रहे कहे जाते हैं तो उनके द्वारा भला धर्मका उपदेश किस प्रकार प्रवर्तगा ? ! ध्यान अवस्थामें सामान्य मुनि भी उपदेश नहीं दे सकते हैं। तो केवलज्ञानी मुख्यध्यांनी होकर धर्मोपदेश कैसे देंगे?। इस प्रकार कोई एक पंडित आक्षेप