Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
३१०
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पण्णवरिणज्जा भावा, अणन्तभागोदु अरणभिलप्यारणं । पण्णवणिज्जाणं पूण अणंतभागो सुदणिबद्धो" ॥
( गोम्मटसार जीवकांड) कहा गया है। __ अनेक वाच्य प्रमेयोंमें भी शब्द आश्वासक मात्र हैं । विशेष व्युत्पत्ति तो स्वकीय योग्यतासे ही होती है । ध्यानकी परिपूर्ण सामग्रीसे विराजमान हो रहा संयमी आत्मा बहिरंग, अभ्यन्तर सम्बन्धी द्रव्य और पर्यायोंका ध्यास करता सन्ता वितर्क यानी शास्त्रज्ञानकी सामर्थ्यसे युक्त होकर जब अर्थ व्यञ्जनों और कायवचनोंका पृथकपने रूपसे संक्रमण कर रहे मनःकरके देरमें वृक्ष काटनेके समान मोहकर्मप्रकृतियोंका उपशम या क्षय कर रहा है । उस समय वह पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान में निमग्न है । तथा मोहनीय कर्म वृक्षको सर्वांग नष्ट करता हुआ अनन्तगुण विशुद्ध हो रहा वीचाररहित क्षीणकषाय जीव अर्थ व्यञ्जन, योगोंकी संक्रान्तिको हटाकर जिस एकाग्रतासे ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका क्षय कर देता है, वह एकत्व वितर्क अवीवार हैं । एवं तेरहवे गुणस्थानवर्ती केवली भगवान की आयु जव तीन अन्तमहर्त शेष रह जाती है, तब बादर योगोंका त्यागकर केवली समुद्धात नामक पुरुषद्वारा आयुके बराबर तीन अघातिया कर्मोंकी स्थितिको समान करता हुआ, सूक्ष्मयोगी तीसरे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानको धारता है। इस ध्यानमें मनकी एकाग्रता नहीं है। क्योंकि तेरहवें गुणस्थानमें अविचारक केवलज्ञान सूर्यके चमकते हुये मानसिक विचार या इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं हो पाते हैं, अतः आत्मीय प्रयत्न परणतिको उपचारसे ध्यान कह दिया गया है । उसके पश्चात् योगक्रियाका नाशकर चौदहवें गुणस्थानमें अयोग केवलीके सम्पूर्ण कर्मोका नाश कर देनेकी सामर्थ्य रखता हुआ, जो आत्मीय पुरुषार्थ होता है । वह व्यवहारसे ध्यान नामको धार रहा व्युपरत क्रियानिवर्ती चौथा शुक्लध्यान है । यों चारों शुक्लध्यानोंका संक्षेपसे स्वरूप कथन है ।
वक्ष्यमाणलक्षणापेक्षया सर्वेषामन्वर्थत्वं । तत एवाह,--
भविष्यमें कहे जानेवाले लक्षणोंको अपेक्षा करके सभी ध्यानोंका प्रकृति, प्रत्यय, अनुसार अन्वर्थपना जान लेना नाहिये। भावार्थ-सूत्रकार महाराजने ज्ञान, चारित्र, प्रमाण, नय, ज्ञानावरण अनुप्रेक्षा, आदिकपद ऐसे प्रसुक्त किये हैं जिनकी कि निरुक्ति कर देने मात्रसे अभीष्ट अर्थ निकल पडता है। पृथक्त्ववितर्क आदि ध्यान भी यथार्थ नामको धार रहे हैं । हो, जिस किसी सम्यग्दर्शन, वितर्क, वीचार, गादि पदोंसे