Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
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हो जाता है । ? ऐसी जिज्ञासा उठने पर ग्रन्थकार युक्तिको दिखलाते हुये अग्रिम श्लोकमे वार्तिकको कह रहे हैं।
परे केवलिनः शुक्ले सयोगस्येतरस्य च । यथायोगं स्मते तज्ज्ञैः प्रकृष्टे शुद्धिभेदतः ॥ १ ॥
तेरहमें, चौदहमें, गुणस्थानोंमे भिन्न भिन्न प्रकारकी विशुद्धि हो जानेसे सयोगकेवली और उनसे न्यारे अयोग केवली भगवान् के योग और अयोग अवस्थाका अतिक्रम नहीं कर यथाक्रमसे अत्युत्तम परले दो शुक्लध्यान हो जाते हैं। इस रहस्यको ध्यानसिद्धान्तके परिपूर्ण ज्ञायक ऋषियोंने सर्वज्ञ आम्नायपूर्वक स्मरण रखते हुये कहा है । भावार्थ:-सयोगकेवलीके प्रकृष्ट विशुद्धि हैं, और अयोगकेवलीके ततोऽपि अधिक प्रकृष्टतर विशुद्धि है । अतः उस सामग्री अनुसार सम्भवनेवाले दो शुक्लध्यान उनके उपज बैठते हैं।
____कानि पुनस्तानि चत्वारि शुक्लध्यानानि यानि स्वामिविशेषाश्रयतया विभज्यन्ते इत्याह
यहां कोई विनीत जिज्ञासु शिष्य शुश्रूषासहित प्रश्न कर रहा है कि वे चार शुक्लध्यान फिर कौनसे हैं ? बताओ, जिनका कि उक्त दो सूत्रोंमे पूर्वधारी और केवलज्ञानी, इन विशेष स्वामियोंके आश्रितपने करके दो, दो रूपसे विभाग कर दिया गया है । ऐसी जाननेकी तीव्र आकांक्षा प्रवर्तनेपर परमोपकारक सूत्रकार महाराज अगिले सूत्रका दिशद निरूपण करते हैं। पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥३९॥
पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकस्ववितर्क अवीचार सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती ये शुक्लध्यानके चार प्रकार है। अर्थात् ध्यानका तत्त्व अत्यन्त गम्भीर और सूक्ष्म है। उत्तम कोटिके धर्म्यध्यान और चारों शुक्ल ध्यानोंका तो आजकल यहां परिचय मात्र भी नहीं है । ध्यानोंका बहुभाग स्वयं अनुभव करने योग्य है । शब्दोंद्वारा निरूपणीय नहीं है । अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, परिणामोंका प्रतिपादन करना भी दुःशक्य हैं, हां योग्य गुरुद्वारा प्रतिपादन कर देनेपर शिष्यको अपने श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम अनुसार अतीन्द्रिय प्रमेय कुछ अंशोंमें झलक होता है । तभी तो