Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
उस आज्ञाविचयके लिये स्मृतियोंका समन्वाहार करना दो प्रकारसे होता है। इस कारण आज्ञाविचय नामक धर्म्यध्यान दो प्रकार है। उनमे पहिला तो सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार प्राप्त आगमको अक्षरशः प्रमाणता होनेसे सूक्ष्म पदार्थोका निर्णय करना आज्ञाविचय है । सो यह प्रसिद्ध पहिला धर्म्यध्यान हेतुवादकी प्रधानतासे रहित हो रहे प्रमेयोंको विषय करता है । साँव्यवहारिक प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंद्वारा. नहीं जान लेने योग्य अर्थों को अपने ज्ञानगोचर कर लेना इस ध्यानका प्रयोजन है। अतः इसको तृतीय स्थान संक्रान्त अतीव परोक्ष पदार्थोंको जानने की अपेक्षा अहेतुवाद स्वरूप माना है । अथवा दसरा आज्ञाविचय यह भी है कि सम्यग्दृष्टि जीवका निःशं. कित होकर सर्वज्ञ आज्ञा अनुसार सूक्ष्म तत्त्वार्थों का स्वयं निर्णय करते हुये दूसरे प्रतिवादियोंके सन्मुख शास्त्रार्थ या वोतराग कथामे हेतु, नय, प्रमाण, दृष्टान्त, पूर्वक प्रकृष्ट भाषण या आज्ञा प्रकाशन करने के लिये स्मृतिसमन्वाहार करना पहिला धर्म्यध्यान है। जो कि हेतुवादस्वरूप है। आज्ञाविचय शब्दको निरुक्ति करनेपर शब्दसामर्थ्य से यह दूसरा भी अर्थ निकल पडता है । जो कि समुचित होकर विन्दन्मान्य है।
. यहां प्रश्न उठाया जाता है कि फिर दूसरा अपायविचय नामक धर्म्यध्यान क्या है ? ऐसी जिज्ञासा उत्थित होनेपर ग्रन्थकार इस अग्रिमवात्तिकको स्पष्ट कह रहे हैं ।
असन्मार्गादपायः स्यादनपायः स्वमार्गतः । स एवोपाय इत्येष ततो भेदेन नोदितः ॥ ३ ॥
तीव्रमिथ्यात्व कर्मके उदय अनुसार जिनको अन्तरंग चक्षुयें नष्ट हो गयी हैं, उन प्राणियोंका अप्रशस्त खोटे मार्गसे अपाय (विश्लेष) हो जाय, और आर्हत स्वकीय श्रेष्ठ मार्गसे अनपाय यानो प्रसंग हो जाय ऐसी शुभ चिन्तनायें करना दूसरा धर्म्यध्यान हैं । मिथ्यामार्गसे हटना वह अपने समीचीन मार्गका उपाय ही है। तिस कारण यह सन्मार्ग उपाय सूत्रकारने भेद करके नहीं कण्ठोक्त किया है । जो असन्मार्गसे हटा. ने की भावनायें रखता है कि अनायतनोंकी सेवा इनसे कैसे छुडाई जाय ? परिशेष न्यायसे यह निकल पडता है कि वह जीवोंके स्वमार्गका उपाय अवश्य चित रहा है।
नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधमिरिण, विशेषणत्वाब्दघर्ध्या यथाऽभेदविवक्षया "।
(श्रीसमन्तभद्राचार्यः)