Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
२६७)
नही टपकता रहता है ? ऐसे कुवोद्य उठाकर किसी सिद्धान्त का अणुमात्र भी खण्डन नहीं हो सकता हैं । जब कि अन्तर्मुहूर्त कालतक ही धोती के जल का टपकते रहना प्रत्यक्षसिद्ध हो रहा हैं । साबूदाना, मूंगकी दाल, भात, खिचडी, तोरई, लौका, आदिक अन्तर्मुहूर्त में ही अग्निपक्व होजाते हैं कितनी हो तोक्षण या महान् अग्निसे पकाया जाय, दग्ध भले ही होजाय किन्तु खाने योग्य परिपाक होने के लिये अन्तर्मुहुर्त काल आवश्यक हैं ऐसी काल की मर्यादा को लेकर होने वाले नियत कार्यों के अनेक दृष्टान्त हैं । आहार, नीहार, मूतना, आदि कार्य अन्तर्मुहूर्त में सम्पन्न होते हैं देर लगे तो दूसरी प्रारम्भ होगये समझो । बिजली या दीपप्रकाश अथवा शब्द ये क्रम से ही चलते हैं भले वे एक सैकिण्ड में हजारो सैकडों या दशों मील चले, हाथ की अंगुली मे सुई या कांटा चुभ जाने पर अथवा पांव के अंगुठे में ठोकर या चोट लग जाने पर क्रम से ही सर्वांग में वेदना व्यापी है, हाँ, वह क्रम मशोन के घुमते हुये चाक के समान अत्यन्त शीघ्र चल जाता है यों अनेक कार्यों को क्रमसे हो उत्पत्ति है । भैंस के दश और घोडी के ग्यारह बारह महिने में बच्चा जन्म लेता है मुर्गी इकईस दिन में, बिल्ली डेड़ महिने मे, कुतिया तीन महीने में गर्भधारण के पश्चात् ब्याय जाती है। इसी प्रकार मुर्गी आठ महिने मे, छिरिया डेढ वर्ष मे, कुतिया दो वर्ष मे और गाय, भैस, घोडी, पांच वर्ष मे वयस्क ( यौवन वयःप्राप्त ) हो जाती हैं, साठी चांवल साठ दिन मे पकती हैं, गेहूं, चने, आदि के काल नियत है । हां, शीत उष्ण देशों मे या बहिरंग प्रयोगों से काल मर्यादा की थोडी न्यूनता अधिकता होसकती है।
__ बिजली की शक्ति से मुर्गी के आडे शोघ्र बढाये जासकते हैं किन्तु कम से कम एक समय या बढकर सैकडों वर्षों या पल्य, सागरों का अन्तर नहीं पड़ सकता है। कर्मभूमियां मनुष्य आठ वर्ष से ऊपर सम्यग्दर्शन को उपजा सकता है, भोगभूमि का मनुष्य उनचास दिन मे सम्यक्त्व के योग्य होता हैं, तिर्यञ्च जन्मसे सात आठ दिन (दिवस पृथक्त्व) पीछे सम्यक्त्वधारी होपकते है। देव, नारकी, अन्तर्मुहतं मे ही पर्याप्त होकर नवीन सम्यग्दृष्टि बन सकते हैं। " तत्परमभिधीयमानं साध्यमिणि साध्यसाधने सन्देहयति" इस का लक्ष कर अब अधिक दृष्टान्त देना व्यर्थ है। हजारों, लाखों भेद वाले छोटे, बडे, अन्तर्मुहूर्त काल तक ही एक ध्यान टिक सकता है, इस को सर्वज्ञ की आज्ञा अनुसार स्वीकार करो, अतिप्रसंग बढाने से हानिके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं निकलेगा।