Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
२७६)
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से द्रव्य मे संक्रान्ति नहीं होसकेगी । अग्र का अर्थ मुख्य या अभिमुख अर्थ रक्खा जाय तो भी एक हो द्रव्य या पर्याय मे अभिमुख होकर ध्यान जमा रहेगा, परिवर्तन नहीं होसकेगा | आचार्य कहते हैं कि यह कटाक्ष तो ठोंक नहीं, क्योंकि अग्र का अर्थ अभि मुखपना होजाने पर पुनः पुनः रूपसे भी प्रवृत्ति होजाय इस बात को समझाने के लिये एकाग्र शब्द कह दिया गया है, जब कि अभिमुखता अर्थ का प्रतिपादन कर रहें अग्रशब्द के होते सन्ते एक अग्र करके हो अभिमुखता से चिन्तानिरोध ध्यान है । तो पर्याय और द्रव्य मे संक्रमण करते हुये ध्यान का होना विरुद्ध नहीं पडता है, कतिपय अर्थों मे भी एक ध्यान की अभिमुखता होजाती हैं, कोई बुद्धिमान् छात्र एक कठिन पंक्ति के कतिपय अर्थों मैं एकटक लगकर चिन्तना करता रहता हैं ।
प्राधान्यवाचिनो वैकशद्वस्य ग्रहणमिहाश्रीयते । प्रधानपुंसोध्यातुरभिमुखश्चिन्ता निरोध एकाग्रचिन्तानिरोध इति सामर्थ्यात् क्वचिद्ध्येयेर्थे द्रव्यपर्यायात्मनीति प्रतीयते, ततो नानिष्टप्रसंगः।
अथवा प्रधानपना अर्थ के वाचक होरहे एक शब्द का ग्रहण करना यहाँ आश्रित किया गया हैं, प्रधान होरहे ध्याता आत्मा का अर्थों में अभिमुख होकर चिन्ताओं का निरोध करना एकाग्रचित्तानिरोध है, इस प्रकार विना कहे हो अन्य उच्चार्यमारणशब्दों की सामर्थ्य से यह तात्पर्य प्रतीत होजाता है कि, द्रव्य और पर्यायों के साथ तदात्मक हो रहे किसी भी ध्येय अर्थ मे एक ध्यान लग जाता है, ध्येय अर्थ के अंश, पाशों में संक्रमण होता रहने पर भी एक यान उसी प्रकार अक्षुण्ण बना रहता है, जैसे कि बचन और योगों का अभ्यंतर मे परिवर्तन होते हुये भी एक ध्यान प्रतिष्ठित रहता है | तिस कारण अग्रशब्द का निरूपण करदेने से अनिष्ट का प्रसंग नहीं हो सकता है । सर्वत्र पदार्थ को स्पष्ट खोल कर रखदेना ही राजमार्ग नहीं है । गुप्तस्थलोंपर या गम्भीर तत्व का निरूपण कर देने पर अगाध द्वयर्थक व्यर्थक शब्द भी कहे जाते है । संख्याते जड़ शब्दों से अनन्तानन्त प्रमेयों के ज्ञानों को तभी उपजाया जाता है, सूत्रकार के एक एक शब्दो मे अपरिमित अर्थ प्रविष्ट होरहा हैं ।
अंग
पुमानिति तु शब्दार्थकथने सत्येकास्मिन् वा पुंसि चिन्तानिरोध एकाग्रचिन्तानिरोध इति द्रव्यर्थादेशाद्वाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निर्वार्तता, स्वस्मिन्नेव ध्यानस्य वृत्तिरिति नानार्थवाचि त्वादेकाग्रवचनं न्याय्यं नैकार्थवचनं ।