Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
२७७ )
अथवा एक बात यह भी है कि स्वादि गए की " अगि गतो" धातु से कर्ता में औणादिक र प्रत्यय किया जाय अंगति यानी गमन कर रहा है, जान रहा है, यों अग्र का अर्थ आत्मा हुआ, इस प्रकार अग्र शुद्ध करके आत्मा स्वरूप अर्थ का कथन करते सन्ते एक पुरुष ( आत्मा ) मैं चिन्ता ओं का निरोध होजाना एकाग्रचिन्ता निरोध है । यों द्रव्यार्थिक नय अनुसार कथन कर देनेसे बहिरंग ध्येय पदार्थों के प्रधानपन की अपेक्षा निवृत्त होजाती है । स्वयं आत्मा मे ही ध्यान की प्रवृत्ति बनी रहती है, जो आत्मध्यानी है वही उत्कृष्ट पुरुषार्थी है, चाहे कितनी ही द्रव्य या पर्यायों में ध्यान संक्रमरण करे, किन्तु अनेक पदार्थों का एक ध्यान और ध्याता आत्मा दोनों द्रव्यार्थिक नय से एक है, अतः एकाग्रशब्द ही बहुत अच्छा है । आत्मा का ध्यान ही तो सर्व मुख्य हैं। इस प्रकार अभीष्ट होरहे अनेक अर्थोंका वाचक होजाने से सूत्र मे एकाग्र इस गम्भीर शब्द का निरूपण करना न्याय प्राप्त है, स्पष्टरूपेण एकार्थ शब्द का कथन कर देना समुचित नहीं है ।
नन्वेवमस्तु चिन्तानिरोधो ध्यानं तस्य तु दिवसमासाद्यवस्थानमुपयुक्तस्येति चेन्न, इन्द्रियोपघातप्रसंगात् । प्राणापान निग्रहो ध्यानमिति चेन्न, शरीरपातप्रसंगात् । मन्दं मन्दं प्राणापानस्य प्रचारो निग्रहस्ततो नास्त्येव शरीरपातः तत्कृतवेदनाप्रकर्षा - भावादिति चेन्न तस्य तादृशनिग्रहस्य यानपरिकर्मत्वेन सामर्थ्यात्सूत्रितत्वात् आसनविशेषविजयादिवत् । तेनैकाग्रचित्तानिरोध एव ध्यानम् ।
यहाँ कोई आक्षेप करनेवाला अनुनय कर रहा है कि इस प्रकार तो चिन्ता ओं का निरोध कर लेना ही ध्यान का लक्षण बना रहो, जबकि द्रव्य से पर्याय में या पर्याय से द्रव्य मे कई बार संक्रमण करते हुये भी एक ध्यान कहा जाता है, अथवा कतिपय वचनों और योगों का पलटना होजाने पर भी एक ध्यान बना रहना है तो उपयोग निमग्न हो रहे किसी समाधिस्थ योगी के उसध्यान की दिन, महीना, वर्ष आदि तक भी अवस्थिति बनी रहेगी । च्यवन आदि ऋषियों का अनेक वर्षों तक समाधिस्थ रहना सुना गया है । अत्रि कण्व, आदि ऋषि भी बहुत दिनों तक समाधि लगाया करते थे, वाल्मीकि ऋषि के समाधि लगानेपर दीमकों ने वामियों बनाली थीं और उन मे सर्प रहने लग गये थे । आप जैनों के यहाँ भी बाहुबलीस्वामी एक वर्ष तक योग लगाये रहे सुने जाते हैं, मात्र अन्तर्मुहूर्त तककी अवधि क्यों डाली जाती है ?