Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२६८)
न निरूप्यते ।
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
www wwAAAAAAAAN
कः पुनरयमं तर्मुहूर्त इत्युच्चते - उक्तपरिमाणोंतर्मुहूर्तः परमागमे ततोऽश्र
यहां कोई जिज्ञासु विनीत शिष्य पुंछना है कि ध्यान के अन्तर्मुहूर्त काल की बहुत अच्छी पुष्टि की गई. हम सभी दार्शनिक बहुत प्रसन्न हुये है, अब महाराज यह बतलाइये कि यह अन्तर्मुहूर्तकाल का परिमाण फिर क्या है ? दयासागर ग्रन्थकार इस पर कहते हैं कि अन्तर्मुहूर्त का परिमाण तो उत्कृष्ट महान् आगम ग्रन्थों में कहा जा चुका है, तिस कारण यहां पुनरुक्ति के भय से नहीं कहा जारहा है, इस श्लोकवार्तिक का अधिकारी पण्डित् स्वयं "नृस्थिती परावरे" सूत्र अनुसार अन्तर्मुहूर्त का अर्थ ज्ञात कर चुका है । अर्थात अन्यसिद्धान्त ग्रन्थो मे अन्तर्मुहूर्त काल को नाप बतादीं गई है, गोम्मटसार में तो
"
-
आवलि असं समया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो । सत्तुस्सासा थोवो सत्तथोवा लवो भरियो
अट्ठत्तीसद्धलवा नाली वे नालिया मुहुत्तं तु । एग समयेण होणं भिण्णमुहत्तं तदो सेसं "
॥५७४॥
आवली कालसे ऊपर और दो घडी यानी अडतालीस मिनट से भीतर (न्यून) का काल अन्तर्मुहूर्त है, अन्तर अव्यय का अर्थ भीतर होता है । अतः दोघडी के भीतर का काल अन्तर्मुहूर्त है, गोम्मटसार में क्षेपक गाथा यों है
\~~~~~~~
11
-
।।५७३॥
11
ससमयमावलि अवरं समऊण मुहुत्तयं तु उक्कस्सं । मज्झा संवियपं विधारण अन्तोमुहुत्त मिणं ॥१॥ एकसमय अधिक आवली काल का जघन्य
अन्तर्मुहूर्त होता है । एक समय
कम मुहूर्त यानी, क्षणन्यून अडतालीस मिनट का उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है, इन दोनों के मध्यवर्ती असंख्याते विकल्प भी अन्तर्मुहूर्त के भेद हैं ।
ज्ञानमेव ध्यानमिति चेन्न, तस्य व्यग्रत्वात्, ध्यानस्य पुनरव्यग्रत्वात्। तत एवैकाप्रवचनं वैयग्यनिवृत्यर्थं सूत्रे युज्यते ।
कोई विद्वान ज्ञान को ही ध्यान मानते हैं, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह एकान्त तो समुचित नहीं है । क्योंकि वह ज्ञान विभिन्न अर्थों मे न्यारी न्यारों ज्ञप्तियाँ कर रहा व्यग्र हैं किन्तु ध्यान फिर व्यग्र नहीं है, एक ही अर्थ मे तक्षर होरहा है, तिस ही कारण से सूत्र मे “एकाग्र" पद कहा गया है, जिसका कि व्यग्रता की निवृत्ति करने के लिये