Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
२४३)
अंट - संट की चिन्ताओं को रोककर एक ही मुख्य अर्थ में चिन्ताओं को रोके रहने के बोर्यविशेष के भी अन्तरंग बहिरंग कारणों का विद्वानों करके ज्ञानलक्षणा द्वारा निर्णय कर लिया जाता है । तिन ही कारणों से चिन्ताओं के एक अर्थ के अभिमुख होकर अवस्थान हो जाता है, उस एकाग्रपने करके अन्य चिन्ताओं का निरोध हो जानेसे ध्यान एकाग्र चिन्तानिरोधस्वरूप बन बैठता है यों उस चिन्तानिरोध को अनेक विषयों की मुख्यतापने करके उपजने की निवृत्ति हो जाना स्वतःसिद्ध हो जाता है ।
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अर्थ पर्यायवाची वा अग्रशब्दः, अंग्यते इत्यग्रमिति कर्मसाधनस्याग्रशब्दस्यार्थ पर्यायवाचित्वोपपत्तेः । एकत्वं च तदग्रं च तदेकाग्रं एकत्वसंख्या विशिष्टोर्थः । प्रधानभूते वा प्रधानवाचिन एकशब्दस्याश्रयणात् । एकाग्रे चिन्तानिरोध एकाग्रचिन्तानिरोध इति योगविभागात् मयूरव्यंसकादित्वाद्वा वृत्तिः । ततोऽनेकार्थे गुणभूते वा कल्पनारोपो ध्यानं मा भूत् ।
अग्र का अर्थ मुख्य किया जा चुका है अब दूसरा विचार है कि अथवा अर्थ का पर्यायवाची अग्र शब्द समझा जाय, " अगि गतौ धातु से कर्म में रक् प्रत्यय हो जाता है जो पदार्थ अंग्यते यानी जान लिया जाय वह अग्र हैं इस प्रकार कर्म मे प्रत्यय कर साधे गये अग्र शब्द को अर्थ पर्याय का वाचकपना व्याकरण द्वारा बन जाता हैं एकत्व संख्यास्वरूप हो रहा जो वह अग्र यानी अर्थ है वह एकाग्र है यों इसका तात्पर्य अर्थ यह निकला कि वह अर्थ एकत्व संख्या से विशिष्ट हो रहा है । अथवा एक का अर्थ एकत्व संख्या नहीं कर प्रधान हो चुके अर्थ में एक शब्द की प्रवृत्ति रखी जाय प्रधान को कह रहे एक शब्द का आश्रय करने से एकाग्र का अर्थ प्रधानभूत अर्थ हो जाता है उस एकाग्र में चिन्ताओं का निरोध हो जाना " एकाग्रचिन्तानिरोध " है ।
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इस प्रकार एकाग्रपद और चिन्तानिरोधपद का सप्तमी तत्पुरुष समास हो रहा है " सप्तमीशौण्डैः " इस समास विधायक सूत्र का योग विभाग कर देने से अथवा मयूरव्यंसकादयश्च " इससे यहाँ सप्तमी समास नाम की वृत्ति कर लीं जाय, " सप्तमीशौण्डः " इस योग में से सप्तमी को अलग कर दिया जाय तो शोण्डादिगरण से अतिरिक्त पदों के साथ भी सप्तम्यन्त पदकी तत्पुरुषवृत्ति हो जाती है । दूसरा उपाय यह भी है कि आकृतिगरण हो रहे मयूर व्यंसकादिक में एकाग्र चिन्तानिरोध का पाठ कर लिया जाय । यों पुरुषार्थ द्वारा एक प्रधान अर्थ में चिन्ताओं का निरोध किये रहना ध्यान बन जाता है । तिसकारण एक का एकत्व संख्या होनेसे अनेक अर्थों में ध्यान होना नहीं बन सका और एक का प्रधान करनेपर गौणभूत अर्थ मे चिन्ताओं को