Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
२५१)
रूपसे अभाव है जैसा ही प्रधान अचेतन है वैसे ही उससे अभिन्न हो रहे महान्, अहंकार आदि भी अचेतन हैं, अचेतन पदार्थ ध्यान करनेवाला नहीं है, जैसे कि घट, पट, आदि पदार्थ किसी का ध्यान नहीं लगा पाते हैं । कल्पना से गढ लिये गये बुद्धिशाली महाम् आदि तत्वों का वस्तुपन निर्मित नहीं हो पाता है । जैसे कि पूर्ववर्त्ती और उत्तरवर्ती कालों में कुछ भी नहीं अन्वय रखनेवाले क्षणिक चित्तों को सन्तान (लडी) वास्तविक नहीं बन सकती है एक सौ ग्यारह (१११ ) या एकसौ आठ (१०८) दोनों की माला मेसे अंगुली से छुपे जारहे एक वर्तमानकालीन मालिकाका ही अस्तित्व मानकर एक सौ दस या एक सौ सात पहिले पिछले मणियों का सर्वथा असद्भाव माननेवाले बौद्धों के यहां जैसे नाप देने योग्य माला नहीं बन सकती है उसी प्रकार बौद्धोंके यहां संतान समुदाय प्रेत्यभाव आदि भाव नहीं बन सकते हैं । इस रहस्य का विशेष विवेचन ग्रन्थकारने अपने अष्ट सहस्री ग्रन्थ में किया है । यों तिरोभाव, आविर्भाव को माननेवाले कापिलों और द्विती यक्षण में सबका ध्वंस माननेवाले अक्रियावादी बौद्धों के यहां संतान यानी पूर्व, अपर अनेक पर्यायों की वास्तविक लडी नहीं बन पाती है । बौद्ध पण्डित पदार्थों में क्रिया होना नहीं मानते हैं उनका विचार है कि मनुष्य, घोडा, बन्दुककी गोली, तोपसे गोला छूटना ये जो पदार्थ चलते दिखते उनमें क्रिया नहीं होती है किन्तु पहिले धाकाश प्रदेशपय जो घोडा या गोला था उसका समूलचूल नाश होकर दूसरे प्रदेश पर नया ही घोडा या गोला उपज गया है, इसी प्रकार मीलों तक यही विनाश, उत्पाद को प्रक्रिया होती रहती है । सिनेमा ( दुष्य नाटक ) में कोई चित्र चलते नही है, किन्तु भिन्न भिन्न प्रकार के तादृश नवीन चित्रों का सन्मुख उत्पाद और पूर्व चित्रों का विमुख विगम होते रहने से बैठते हैं । जैन सिद्धान्
स्थूल बुद्धिवाले प्रेक्षक उन उन पदार्थोंको क्रियावान् समझ अनुसार बौद्धोंकी उक्त पंक्तियां अलीक है । सिनेमा के चित्रोंमें भले ही क्रिया नही होग मात्र विद्युत्शक्ति से रीलें सरकती हुई चलीं जाय किन्तु दृष्यमान मनुष्य, घोडे, रेलगाडी विमान, आदिमें क्रिया हो रही प्रत्यक्ष सिद्ध है । क्रियावान् पदार्थ भी एकत्व प्रत्यभिज्ञान द्वारा कालान्तर स्थायी सिद्ध हो रहे है । यों उत्पाद, व्यय, धीव्य, स्वरूप परिणामको धारनेकाले पदार्थको ही अर्थक्रिया को कर रहे सत् है । कापिल आदि दार्शनिकों के यहो ध्यातातत्त्व नहीं बन पाती है हाँ स्याद्वादी विद्वद्वरेण्यों के यहां तो परिणामी आत्मा ध्यान करनेवाला ध्याता हो जाता है। क्योंकि उत्तम संहननोंसे विशिष्ट होरहे उस संसारी. अनादि कर्मबन्धनबद्ध आत्मा के मूर्तिसहितपना प्रमाणोंसे सिद्ध है। उस ही प्रकार बात्माक ध्यातापनको अग्रिम वार्तिक में ग्रभ्थकार स्वयं प्रतिपादन कर रहे हैं।