Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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: मवमोध्यायः
२५७)
की लडी टूट जायगी, हाँ पुनःपुनः कतिपय ध्यानोंकी आवृत्ति करके उत्कृष्ट अन्तर्महतं काल में या दो चार मुहूर्तकाल मे कतिपय सन्तानी ध्यानों की सनति चिरकाल तक भी होती रहे कोई विरोध नहीं पडता है, जैसे कि उत्तरवर्ती वैक्रियिक शरीर अन्तर्मुहूर्त काल से अधिक नही ठहरता है, किन्तु जिन जन्माभिषेक कल्याणक में या अन्य क्रीडा स्थलो मे देव, इन्द्र, घन्टों, दिनों, तक उत्तर शरीर द्वारा अनेक क्रियायें करते रहते हैं यहां भी वैक्रियिक शरीर की उत्तर, उत्तर अनेक विक्रियाओं का उत्पाद होकर शरीरसंतति बहुत काल तक ठहर जाती है।
ननु यद्येकान्तर्मुहतंस्थास्नु ध्यानं प्रतिसमयं तादृशमेव तदित्यंतसमयेपि तेन तादृशेनैव भवितव्यं तया च द्वितीयान्तर्महर्तेष्वपि तस्य स्थितिसिद्धेर्न जातु विच्छेदः स्यात् । प्रथमान्तर्मुहूर्तपरिसमाप्तौ तद्विच्छेदे वा द्वितीद्यादिसमये विच्छेदानुषक्तेः क्षणमात्रस्थितिः ध्यानमायातं सर्वपदार्थांनां क्षणमात्रस्थास्नुतया प्रतीतेरक्षणिकत्वे बाधकसद्भावात् इति केचित्,
___ अव बौद्ध का पूर्वपक्ष प्रारम्भ होता है कि जैन विद्वान यदि ध्यान को दो चार सैकिण्ड या चार छः मिनट आदि एक अन्तर्मुहंत काल तक ही ठहरवे की टेब को धारने बाला मानते हैं, ऐसी दशामे एक अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर रहा, वह ध्यान, पिण्ड विवारा समय समय प्रति वैसा हो ए रुसा रहेगा, ज्ञानार्यायों का दूसरे क्षण में बदल जाना जैन भी इष्ट करते है। अन्तर्मुहुर्त तक के ध्यान में असंख्याते या स्वसंवेद्य संख्याते ज्ञान हो चुके है, एक ध्यान मे पहिले ज्ञान ने दूसरा ज्ञान पैदा किया, दूसरा ज्ञान नष्ट हो रहा तिसरे ज्ञानको उपजा गया, मध्यवर्ती ज्ञानने अपने अगिले समय के ज्ञान को बनाया, इसो प्रकार विनाश, उत्पाद होते होते ध्यान के अन्तरसमय मे भी वह ज्ञान उस ही प्रकार का यानी उत्तर समयवर्ती ज्ञान को पैदा करते रहने वाला होना चाहिये भौर तसा होने पर दूसरे, तीसरे, चौथे आदि अन्तर्मुहूतों मे भी उसी सदृश ज्ञान का बना रहना सिद्ध है, वही चक्र चार छः घण्टे तक भी चल सकता है और ऐसा होते रहने से कदाचित् महोनों, वर्षों तक भी ध्यान का विच्छेद (अन्तराल) नहीं पड सकेगा कोई भी ज्ञान थक कर यों नही कहेगा कि मैं आगे ज्ञानको उत्पन्न नहीं करूंगा जैसे कि ध्यान का मध्यवर्ती ज्ञान अग्रिम क्षण मे ज्ञान को उपजाने के लिये निषेध नहीं करता है।
यदि पाप जैन यो कहै कि पहिले अन्तर्मुहतं के ठीक समाप्त हो जाने पर उस बान सन्ततिरूप ध्यान का विच्छेद मान लिया जायेगा, पश्चात् दूसरे ध्यानका प्रारम्भ