Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
२३३)
ज्ञान के समान प्रतिबिम्बों का धारण करना जो माना है वह तो युक्तियों से ही सिद्ध नहीं हो पाता है । भावार्थ- योग से अन्य काल मे आत्मा का वृत्तियों के साथ तदाकार हो जाना याची व्युत्थान काल में बुद्धि आदि के सहारे आत्मा भी वैसा ही भासता है बुद्धिवृत्ति के समान वृत्तिवाला हो जाता है । जैसी जैसी सुख आदि आकारों को धारण करनेवाली वृत्तियां है तदनुरूप ही पुरुष का वेदन होता रहता है । चलायमान जल तरंगों में प्रतिबिम्बित चन्द्रबिम्ब भी चलायमान दिखता है, उसी प्रकार पुरुष भी वृत्तियों के आकारवाला तत्स्वरूप विदित हो रहा है । यह योगसिद्धान्त युक्ति सिद्ध नहीं है, क्योंकि किसी भी अमूर्त अर्थमे किसो भो मूर्त या अमूर्त पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड जाना असम्भव है। आपके यहाँ आत्मा सर्वथा अमूर्त माना गया है। वृत्तियाँ भी अमूर्त हैं। उनमें विषयों का प्रतिबिम्ब नहीं पड सकता है। इसी बातको विशदरूपेण अनुमान बनाकर कहते हैं कि वृत्तियाँ ( पक्ष ) प्रतिबिम्बों को धारनेवाली नहीं है ( साध्यदल ) अमूर्त होने से ( हेतु ) जैसे कि आकोश अमूर्त हो रहा प्रतिबिम्ब आकारों को नहीं धारता है ( अन्वयदृष्टान्त ) जो जो प्रतिबिम्ब को धारनेवाले पदार्थ वे वे अमूर्त नहीं देखे गये हैं जैसे कि दर्पण, जल, तेल, खड्ग आदि हैं (व्यतिरेकदृष्टान्त) वृत्तियें अमूर्त हैं (उपनय) तिस कारण प्रतिबिम्बों को धारनेवाली नहीं हैं (निगमन)। यों इस पञ्चावयवाले परार्थानुमान में पड़ा हुआ अमूर्तपना हेतु असिद्ध नहीं है । पक्ष में हेतु नहीं रहता तो असिद्ध हेत्वाभास हो जाता, किन्तु यह हेतु पक्ष में वर्त रहा है। ज्ञानस्वरूप वृत्तियों का मूर्त होना स्वीकार नहीं किया गया है। यदि उन जाववृत्तियों को रूपादिमान, मर्त, स्वीकार किया जायगा तो चक्षु आदि बहिरंग इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो जाने का प्रसंग आ जावेगा, ज्ञानों का बाह्य इन्द्रियों से प्रत्यक्ष हो जाना किसी को अभीष्ट नहीं है। यदि नैयायिक को मन के मूर्तपन में सहकारी समझकार योग यही यो कहें कि ज्ञानवृत्तियां मन के समान अत्यन्त सूक्ष्म है । अतः मूर्त भी मन का सूक्ष्म हो जाने के कारण जैसे चक्षुरादिक करके प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है उसी के समान अत्यन्त सूक्ष्म होने से ज्ञान वृत्तियों का बाह्य प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो उस मूर्त मन के समान हो ज्ञानवृत्तियों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो जाना भी नहीं बन सकेगा। किन्तु ज्ञान का स्वसंवेदन हो रहा है, स्वसंवेदन द्वारा नहीं जानी जा रही तो ज्ञानवृत्तियों नहीं हैं, यदि ऐसी अस्वसंविदित होती तो उनके द्वारा अर्थ के ग्रहण हो जाने का विरोध हो जाता, जो स्वसंविदित नहीं है