Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मानी गई हैं। धर्माधर्मकी वासना को उत्पन्न करनेवाली रजोगुणसम्बन्धी और तमोगुण सम्बन्धी वृत्तियां क्लिष्ट हैं। इन वृत्तियों से राग, द्वेष आदिमें प्रवृत्त हुआ आत्मा शुभाशभ कर्मों के करनेसे जन्म, मरण, रूप कष्टों को प्राप्त होता रहता है तथा जो वृत्तियें प्रकृति और पुरुष के भेद को विषय कर रहीं धर्माधर्मद्वारा भाविजन्म के आरम्भ को निवृत्त कर देती हैं वे सात्विकवृत्तियें अक्लिष्ट हैं। उन पांचों वृत्तियों का शांत, घोर, सूढ, दशा अनुसार चक्षुरादि द्वारा बाह्य, आभ्यन्तर विषयों में बुद्धि के साथ मात्र सारूप्य हो जाता हैं। सात्त्विक वृत्ति की शांत अवस्था अनुसार छोड़ने की इच्छा और ग्रहण करने की इच्छा से रहित हो रहा उपेक्षा फलवाला वह संप्रज्ञातयोग स्वरूप ध्यान है। इस प्रकार हो चुके चित्तवृत्ति के निरोध का सद्भाव उस समाधि में रहता हैं इस प्रकार जो व्यासजी द्वारा योगसूत्र के भाष्य में भाषित किया गया है। इसके उस अंशमे मात्र ज्ञान आत्मकपने करके हमे कोई विवाद नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त में सभी ध्यानों का ज्ञानात्मकपना प्रसिद्ध हो रहा है। दसरे दार्शनिकों ने भी व्युत्थान दशाके अस्थिर ज्ञानों की दशा को टालकर स्थिर हो चुका ज्ञान ही समाधि है ऐसा निरूपण किया हैं। योगसूत्र के तीसरे विभूतिपादका दूसरा सूत्र भी इसी अभिप्राय को कह रहा है “ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् " योगचन्द्रि का वृत्ति को रचनेवाले अनन्तदेव पण्डित इस सूत्र का अर्थ यों कर रहे हैं कि जिस जिस देश में चित्त धर दिया हैं उसमें प्रत्यय यानी ज्ञान का एकतान हो जाना, एकरस प्रवाह रूपसे प्रवर्त जाना अर्थात् विसदृश परिणामों का परिहार करते हुये धारणा के आलम्बन विषय में ही निरन्तर उपज रहा ज्ञान ही ध्यान है " तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः " ( सूत्र तीसरा ) वही ध्यान केवल एक अर्थका निर्भास करता हुआ ज्ञाता, ज्ञेय, स्वरूप से शून्य हो रहा मानं समाधि हो जाता है मानसिक उपयोग जहां एकाग्र कर दिया जाय वह समाधि है।
विषयसारूप्यं तु वृत्तीनां प्रतिबिंबाधानं तदनुपपन्नमेव क्वचिदमूर्तेर्थे कस्यचित् प्रतिबिम्बासम्भवात् । तथाहि - न प्रतिबिंबभृतो वृत्तयोऽमूर्तत्वाद्यथा खं, यत् प्रतिबिंबभृतं न तदमूर्त दृष्टं यथा दर्पणादि । अमूर्ता वृत्तयस्तस्मान्न प्रतिबिंबभृत इत्यत्र न तावदसिद्धो हेतुर्ज्ञानवृत्तीनां मूर्तत्वानभ्युपगमात् । तदभ्युपगमे बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्व प्रसंगात् । मनोवदतिसूक्ष्मत्वादप्रत्यक्षत्वे स्वसंवेदनप्रत्यक्षतापि न स्यात्तद्वदेव । न चास्व. संविदिता एव ज्ञानवृत्तयोर्थग्राहित्वविरोधात् ।
___आप पतञ्जलों ने “ वृत्तिसारूप्यमितरत्र " इस सूत्र द्वारा क्लिष्ट अक्लिष्ट हो रहीं प्रमाण आदि वृत्तियों में विषयों के साथ सरूपपना यानी बौद्धोक्त