Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२२१)
अन्योन्याभाव, और अत्यन्ताभाव को सुस्थिर होकर पकडे रहता है, तभी उसका जीवन अक्षुण्ण सद्गत बना रहता है, अन्यथा प्रत्येक वस्तुओं पर आपत्तियों के वज्रघात होते रहते । प्रकरण मे एक व्युत्सर्ग धर्मके अनेक विवर्त दिखलाये गये हैं । इसी बात का विवरण ग्रन्थकार कर रहे हैं ।
^^^^^^^^^^^^^
नवsमोध्यायः
सावद्यप्रत्याख्यानशक्त्यपेक्षया हि व्रतात्मकस्त्यागः । स चाव्रतास्त्रव निरोधफलः । पुण्यास्त्रवफलं तु दानं स्वातिसर्गशक्त्यपेक्षं । धर्मात्मकस्तु संवरणशक्त्यपेक्षस्त्यागः । प्रायश्चित्तात्मको तिचारशोधनशक्त्यपेक्षः । अभ्यन्तरतपोरूपस्तु कायोत्सजनशक्त्यपेक्ष इति त्यागसामान्यादेकोप्यनेकः ।
वस्तु मे अनन्त गुण हैं, गुणों की भिन्न भिन्न समयों मे अनेक पर्याये 'होती रहती हैं, एक एक पर्याय मे भिन्न भिन्न प्रसंगों की परिस्थिति के वश अनेक स्वभाव बन बैठते हैं ।
व्युत्सर्ग भी है, इसी
स्वरूपों से
कहा गया कृत्यों के
प्रकरण मे आत्माके चरित्र गुणका परिणाम एक व्युत्सर्ग को भित्र भित्र प्रकरणों पर स्वल्प अन्तर अनुसार अनेक है। पांच व्रतों में परिग्रहनिवृत्ति नाम का व्रत है, पापों से सहित हो रहे त्याग कर देने की शक्ति अपेक्षा करके यह व्युत्सर्गं ही व्रत आत्मक त्याग है जो कि वह परिग्रह त्याग स्वरूप हो रहा अव्रत परिणामों को हेतु मानकर आने वाले दुष्कर्मों का निरोध कर देना इस फल को लिये हुये हैं । अर्थात् परिग्रह संरक्षण से जो पाप बन्ध होनेवाला था उसको पांचमा व्रतस्वरूप हो रहा व्युत्सर्ग रोक देता है । तथा " अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं " स्वकीय अर्थ के त्यागने की शक्ति की अपेक्षा रखता हुआ दानस्वरूप व्युत्सर्ग तो पुण्यकर्मों का आस्रव होना, इस फल का संपादक है । दानस्वरूप व्युत्सर्ग करते रहने से भोगभूमि मे उपजना, देव हो जाना आदि अनेक अभ्युदयों की प्राप्ति हो जाती है । हाँ, उत्तम क्षमा आदि दशविध धर्मो मे से त्याग धर्म आत्मक हो रहा व्युत्सर्ग तो संवरण शक्ति की अपेक्षा रखता हुआ त्याग स्वभाववाला परिणाम है, जब कि धर्मों से संवर होता है, अतः त्याग आत्मक व्युत्सर्ग से कर्मों का संवर अवश्य भावी है, एवं नौ भेदवाले प्रायश्चित्तों में सी व्युत्सर्ग गिनाया गया हैं, प्रायश्चित्तों से अतीचारों का शोधन हो जाता है, यों दशस्वरूप अतीचारों के शोधने की शक्ति की अपेक्षा रखता हुआ व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त आत्मक भी हैं ।
इसी प्रकार यहां अभ्यन्तर तपों मे व्युत्सर्ग का पाठ हैं, अतः अभ्यन्तर तपःस्वरूप हो रहा व्युत्सर्गं तो कार्योत्सर्ग करना, उपात्त, अनुपात्त, उपधियोंका त्याग