Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
स्याद्वाह्याभ्यन्तरोपथ्यो र्यु त्सोंधिकृतो द्विधा। व्रतधर्मात्मको दानप्रायश्चित्तात्मकोऽपरः ॥१॥ कथंचित्यागतां प्राप्तोप्येको निर्दिष्यते नणां ।
शक्तिभेदव्यपेक्षायां फलेष्वेकोप्यनेकधा ॥२॥
तप के भेदों का निरूपण करते हुये अधिकार प्राप्त हो रहा व्युत्सर्ग तप तो इस सूत्र मे हयोपधिका और अभ्यन्तरोपधिका परित्याग करना यों दो प्रकार कहा जा चुका समझो। परिग्रहनिवृत्ति नामक व्रतस्वरूप कहा गया और त्याग धर्म आत्मक हो रहा, तथा दानस्वरूप प्ररूपा गया, एवं प्रायश्चित्त आत्मक बन रहा, विशेष व्युत्सर्ग तो इस अन्तरंग तपस्या स्वरूप व्युत्सर्ग से भिन्न ही हैं, हां, सर्वत्र सामान्य रूपसे त्याग विवक्षित हैं । कचित् त्यागपने को प्राप्त हो रहा साधारणपने करके एक भी व्युत्सर्ग कर देना मनुष्यों या जीवों की भिन्न भिन्न शक्ति की विशेष अपेक्षा करने पर अनेक रूपेण कह दिया जाता है। तथा एक हो रहा भी व्युत्सर्ग फलों मे भी अनेक प्रकार से निर्दीष्ट हो जाता है।
भावार्थ :- जैसे एक भी औषधि भिन्न भिन्न अनुयानों की सहकारिता से अनेक रोगोंका दमन कर देती है, उसो प्रकार व्युत्सर्ग भी अनेक आत्मीय स्वभावों से सहकृत हो रहा सन्ता अभ्युदय और निःश्रेयस का सम्पादक हो जाता है, आत्मा धर्मी अनेक धर्मों को धार रहा है।
धर्मे धर्मेन्य एवार्थों धर्मिणोनन्तधर्मणः । अंगित्वेन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदंगता ॥
-आप्तमीमांसा प्रत्येक वस्तु परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की अपेक्षा नास्तित्व धर्म को अटल रूप से झेल रही है। अपने ऊपर रक्खे हुये स्वात्मक अनन्तानन्त अभावों मे से यदि एक अभाव को भी हटा दिया जाय तो तत्काल वस्तुको उक्त प्रतियोगो आत्मक हो जाने के लिये बाध्य हो जाना पड़ेगा। एक विद्यार्थी यदि अपने ऊपर तदात्मक होकर धरे हुये सर्पाभाव, सिंहान्योन्याभाव, आदि को एक क्षण के लिये भी दूर कर दे तो उस छात्र को उसी समय सर्प या सिंह बन जाना पडेगा, उसकी हाप, धाप, पुकार किसी भी न्यायालय (अदालत) में सुनी नहीं जा सकेगी। स्वचतुष्टय अनुसार आत्मसम्पत्ति को धार रहा पदार्थ प्रत्येक क्षण में स्वातिरिक्त विषयोंके प्रागभाव, प्रध्वन्स