Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१३०)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
प्रकृतियों का सातमे आदि गुणस्थानों तक आस्रव हो रहा है, उस कषाय का निरोध हो जाने पर ग्यारहमे आदि गुणस्थानों में उन प्रकृतियों के आस्रव का निरास हो जाता है आठवें गुणस्थान में छत्तीस प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति है, नौवें में पांच की और दशमे में सोलह की व्युच्छित्ति है। ग्यारहमे, बारहमे, तेरहमे गुणस्थानो में मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषायों से सर्वथा रोते केवलयोग को निमित्त पाकर सद्वेद्य कर्म का आस्रव होता रहता है। चौदहवें गुणस्थान में उस योग का भी अभाव हो जाने पर उस सातावेदनीय का भी आशव होना रुक जाता है। इस प्रकार अयोगकेवली महाराज के चौदहमे गुणस्थान में एकसौ बीसौ कर्मप्रकृतियों और नोकर्मवर्गणाओं इन सब का पूर्णरूप से संवर है। हाँ, सयोगकेवली पर्यंत ऊपरले तेरह या बारह गुणस्थानों में एकदेश रूप से संवर हुआ समझ लेना चाहिये। पहले गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारकद्विक, प्रकृतियों का बंध भले ही नहीं होय किंतु संवर हुआ नहीं कहा जा सकता है। अतः पहिले गुणस्थान में किसी प्रकृति का भी संवर नहीं है। सातिशयमियादृष्टि के स्थितिखण्डन, अनुभागकाण्डकघात हुये तो क्या?
स कैः क्रियत इत्याहः--
वह संवर किन कारणों करके किया जाता है ? इस प्रकार जानने को इच्छा होने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥
गुप्ति परिणतियां, समितियां, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षायें, वाईस परीषहों को जीतना और चारित्र इन आत्मीयपुरुषार्थ स्वरूप परिणामों करके वह संवर हो जाता हैं।
संसारकारणगोपनाद्गुप्तिः, सम्यगयनं समितिः, इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः, स्वभावानुचितनमनुप्रेक्षा, परिषह्यते इति परोषहास्तेषां जयो न्यक्कारः, चारित्रशब्दों व्याख्यातार्थः। संवृण्वतो गुप्त्यादिभिः गुप्त्यादय एव संवर इति चेन्नास्वनिमित्तकर्मसंवरपात् । स इति वचनं गुप्त्यादिभिः साक्षात्संबंधनार्थ ।
__ संसार के कारण हो रहे अशुभ परिणामों से आत्मा की रक्षा करती है अर्थात् आत्मा को अशुभ परिणतियों से बाल बाल बचाये रखती है इस कारण यह गुप्ति कही जाती है। दूसरे प्राणियों की पीड़ा का परिहार हो जाय इस इच्छा से भले प्रकार प्रवर्तना समिति है। आत्मा को अभीष्ट स्थान में धर देता है इस कारण यह धर्म कहा जाता है।