Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अनित्यत्वादयो धर्माः संख्यात्मादिषु तस्विकाः, तथा साधनसद्भावात्सर्वेषां स्वेष्टतत्ववत् ॥ २॥ ततोनुचिन्तनं तेषां नासतां कलितात्मनां,
नाप्यनर्थकमिष्टस्य संवरस्त्र प्रसिद्धितः ॥३॥
आत्मा, शरीर आदि पदार्थों में पर्यायदृष्टि से वास्तविक हो रहे अनित्यत्व आदिक धर्म विद्यमान हैं (प्रतिज्ञा) तिस प्रकार अनित्यत्व, अशरण, एकत्व, अशुचित्व, आदि को सिद्ध करने वाले साधनों का सद्भाव होने से (हेतु) जैसे कि सम्पूर्ण प्रवादो विद्वानों के यहां अपने इष्टतत्त्व वस्तुभूत माने गये हैं (दृष्टान्त)।
भावार्थ-बौद्धों के यहाँ स्व नक्षण या ज्ञान को वस्तुभा माना गया है, सांख्यों ने आत्मा और प्रकृति को परमार्थ तत्त्व माना है, नैयायिकों ने आत्मा, रूप, रस, आदि को वास्तविक तत्त्व इष्ट किया है. चार्वाकने पृथिवी आदिको तत्त्व अभीष्ट किया है। इसी प्रकार अनित्यपन आदि भो वस्तुभित्ति पर अवलम्बित हो रहे धर्म हैं । बबूला, बिजली, दीपशिखा ये सब क्षणभंगुर हैं। महान् कष्ट या मृत्यु में कोई शरण नहीं है, रजो वीर्य से उत्पन्न हुआ मल, मूत्र का अधिकरण यह शरीर महान् अपवित्र है, यह जीव दूसरे पदार्थों से भिन्न है, तत्वज्ञान बडा दुर्लभ है, इत्यादिक धर्म सभी वस्तु के स्वरूप में ओत प्रोत होकर अनु. प्रविष्ट हो रहे हैं : कोरे कल्पित नहीं हैं । शरीरपर पहन लिये गये वस्त्रमें प्रतिक्षण जीर्णता प्रविष्ट हो रही है, चटाई या दरी प्रतिसमय घिस रही हैं। बच्चे का शरीर अनुक्षण बढ रहा है। सर्पमें काटे जानेके और न्योले में काटने के अवयव वस्तुभूत हैं । अग्नि में दाहकत्व और रुई में दाह्यत्व परिणतियां वस्तुभूत दीख रही हैं। अष्टसहस्री ग्रन्थ में अनेक युक्तियों से बस्तुभूत धर्मों को साध दिया गया है । तिस कारण अनुप्रेक्षाओं में कोरे कल्पित स्वरूप हो रहे उन असद्भूत धर्मोका बार बार चिन्तन नहीं है। किन्तु वस्तुभूत धर्मों की भावनायें हैं। ये बारह भावनायें व्यर्थ भी नहीं हैं। क्योंकि इष्ट हो रहे संवर की इन से भले प्रकार सिद्धि हो जाती है । वस्तुभूत धर्म अवश्य हो वास्तविक कार्य को कर डालते हैं।
. अथानुप्रेक्षानन्तरं परीषहजयं प्रस्तुवानः सर्वपरीषहाणां सहनं तेत्र किमर्थ सोढव्या इत्याहः