Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नमोऽध्यायः
(१८७
चामके निमित्त (फल) वाघ को मार रहा हैं, यहाँ जिस प्रकार वर्मका संयंग है चाम और व्याघ्र का अवयव अवयवी होने से समवाय सम्बन्ध है, निमित्त यानी फल हो रहा चाम उस व्याघ्र नामक कर्मके साथ संबन्ध हो रहा है तिसप्रकार यहां ज्ञानावरण और अज्ञान का कोई संयोग या समवाय संबध अभीष्ट नही है।वेदनीय या ज्ञनावरण निमित्त यानी फल होय और क्षुधा आदिक या अज्ञान निमित्ती होय यह सिद्धान्त भी युक्त नहीं है, जिस से कि 'वेदनीये शेषाः' इस प्रकार शेष पद मे द्वितीया विभक्ति होने का प्रसंग प्राप्त होवे।
वस्तुतः यहां निमित्त निमित्तिभाव नहीं है तिस कारण यहां सति सप्तमी रखना यः स्वं च भावेन भावलक्षणं, जिस क्रिया का काल जाना जा रहा प्रसिद्ध है उस क्रिया से दुसरी अज्ञात क्रिया के काल की ज्ञप्ति करना यहाँ लक्षण है, जिसकी क्रियासे क्रियान्तर लक्षित किया जाय उस ज्ञापक क्रिया के आश्रय को कह रहे पद मे सप्तमी विभक्ति हो जाती है अतः यह वेदनीय आदि पदोमे सप्तमी विभक्ति का निरूपण तो सत् अर्थ को कथन करने वाला है। क्योंकि एक ज्ञातसे दूसरे अज्ञात को दिखलाया गया है,जैसे कि कोई चाकर गोद - हन के समय रोटी खाने गया था, स्वामी ने उससे पूछा कि तुम कब गये थे ? उत्तर देता है कि जब गाये दोही जा रही थी तब मैं गया था। वे दोही जा चुकी थी तब मै यहां आ गया था अथवा · छात्रेषु अधीयमानेषु गत: ' छात्र जब पढ रहे थे तब गया था, इत्यादिक प्रयोगो मे जैसे सन्ते अर्थ मे सप्तमी हो रहा है उसी प्रकार भावलक्षण हो जानेपर वेदनीय के होते मन्ते शष परीषहे होती है, नहीं होनेपर नहीं होती हैं यों सप्तमी विभक्ति को सुघटित करलेना चाहिये।।
अकस्मिन्न मनि सकृत् किर्यतः परीषहाः संभवन्तीत्याह :
परीषहों के निमित्त कारण, लक्षण और भेदों को समझ लिया अब यहां यह समझाओं कि एक आत्मा में एक बार कितनी परीषहे संभव जाती है ? ऐसी विनीत भव्य को जिज्ञासा प्रर्वतने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिमसूत्र का स्पष्ट उच्चारण कर रहे हैं।
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविशंतेः ॥१७॥
एक समय मे (एकदम) एक आत्मामें एक परीषह को आदि लेकर विकल्पना करने योग्य होरही सन्ती उन्नीस परीषहें तक सम्भव जाती हैं । अर्थात् कदाचित् एक कक्षाचित् दो कभी तीन ऐसी विकल्पना करते हुए एक बार मे उनईस परोषहे पर्यन्त हो सकती हैं। विरोध होने के कारण शीत और उष्ण इन दो मे से एक तथा शय्या, निषद्या, चर्या इन तीन में से एक, यों पूरी बाईसों नहीं होकर एक समय में उनईस ही सम्भवती है।