Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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का परित्याग कर देना व्युत्सर्ग है, चित्तके विक्षेप का त्याग करते हुए एक अर्थमे ही अनेक ज्ञानोंको उपजाकर चित्तवृत्तिका निरोध करना ध्यान है । अन्तरंग मनका आत्मीय शुभभावोमें नियंत्रण किये जाने के कारण होनेसे ये छओं अन्तरंग तप माने गये हैं।
तप इति सम्बध्यते । अस्यान्यतीर्थानभ्यस्तत्वातुत्तरत्वं अभ्यन्तरत्वमितियावत्, अन्तःकरणव्यापाराद्वाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् । स्वत एतच्च संवेद्यमिति दर्शयन्नाह ।
पूर्व सूत्रमे कहे गये तप इस शब्दको अनुवृत्ति कर यहां संबध कर लिया जाता है। अन्य मतावलम्बियों करके अभ्यास प्राप्त नहीं होनेके कारण इन प्रायश्चित आदिकों की उत्तर तपस्यापना इष्ट किया गया है। उत्तर इस पदका अर्थ यहां प्रकरण अनुसार अभ्यन्तर हैं, यों ये अभ्यन्तर तप हैं यह फलितार्थ निकला।
अन्तरंग इन्द्रिय हो रहे मनका इन प्रायश्चित आदिको मे अवलम्ब व्यापार होनेके कारण और वाहयद्रव्य की अपेक्षा न होनेके कारण ये. अन्तरंग तप हैं; तथा ये प्रायश्चित आदिक तप स्वतः ही भले प्रकार जानने योग्य है, अर्थात् उपवास आदिक जैसे दूसरे जीवों करके भी वेद्य हैं, उसप्रकार प्रायश्चित्त आदिक मानसिक उपयोग हो रहे सन्ते स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा ही संवेद्य है, परसंवेद्य नहीं है । इसो बात को प्रन्थकार अगली वार्तिकद्वारा दिखलाकर स्पष्ट कह रहे हैं।
प्रायश्चित्तादि षड्भेदं तपः संवरकारणं स्यादुत्तरं स्वसंवेद्यमिति स्पष्टमनोगतं ॥१॥
संवरका कारण हो रहा प्रायश्चित्त आदि छह भेदवाला अभ्यन्तर तप है, जोकि स्पष्ट रूपसे मन इन्द्रिय द्वारा जान लिया गया, सन्ता स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करने योग्य है, अतः यह अन्तरंग तप हो सकता है।
तद्भेदगणनार्थमाह -
उन अन्तरंग तपोंके भेद प्रभेदों की गणना करनेके लिए सूत्रकार महाराज अग्रिमसूत्रको कह रहे हैं, उसको स्पष्ट सुनिये ।
नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा यथाक्रम प्रारध्यानात् ॥२१॥
ध्यान नामक तपसे पहिले तक क्रमानुसार नी, चार, दश, पांच, दो इतने भेदवाले प्रायश्चित्त आदिक हैं। अर्थात् प्रायश्चित के नौ भेद हैं, विनयके चार भेद हैं, दशभेदोंको धाररहा वैयावृत्त्य है, स्वाध्याय के पाँच भेद हैं, दो भेदवाला व्युत्सर्ग है । ध्यानके भेदोंका निरूपण भविष्यमे किया जायगा।