Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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२१२)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
होय तैसे बढाना ही सम्यग्ज्ञान आदि का विनय है । मन्दिरजी में शास्त्र के सन्मुख हाथ जोड लेना या जिनेन्द्र देव के दर्शन कर लेना मात्र यही बहिरंग क्रिया ज्ञान, दर्शन विनय नहीं हैं । अन्यथा यानी यदि ज्ञान आदिको बिनय नहीं मानकर हम बहिरंग स्यवहार को ही हम विनय मान बैठते तो अन्य जीवों करके संवेदन हो जानेके कारण उस विनय तपको अंतरंगपना नहीं हो पाता, क्योंकि दूसरोंसे संवेद्य हो रहे अनशन आदि तप या घट, पट, आदिक पदार्थ बहिरंग माने गये हैं । हां, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करके अनुभूत हो रहे ज्ञान आदि विनय या सुख, दुःख आदि पदार्थ अन्तरंग हैं ।सर्वज्ञके अतिरिक्त अन्य जीवों से भी जिसका प्रत्यक्ष हो रहा है वह पदार्थ अन्तरंग नहीं हो सकता है । उपचार विनयमे भी अन्तरंग परिणाम कुछ निराले हो रहे हैं।
अथ वैयावृत्त्यप्रतिपत्त्यर्थमाह;
विनय नामक अन्तरंग तपका निरूपण कर चुकने पर अब सूत्रकार महाराज शिष्यों को वैयावृत्त्य तपके भेदों की प्रतिपत्ति कराने के लिये इस अगिले सूत्रको रचना करते हैं। प्राचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानां ॥२४॥
___आचार्य को वैयावृत्त्य करना, उपाध्याय महाराजको टहल करना, तपस्वी की परिचर्या करना, शिक्षा लेनेकी वान रखने वाले मुनियों को अनुकूल वृत्तिता करना, रोगादिक से क्लेश पा रहे ग्लान मुनियों की सेवा करना, वृद्ध मुनि गण की शश्रषा करना, कुल मे एकत्रित हो रहे यतिवरों का अनुनय करना, संघकी उपासना करना, साधुओंकी सपर्या करना, मनोज्ञ मुनियोंका परिचारकत्व करना, यों दशप्रकार वैयावृत्त्य नामका तप है।
वैयावृत्यमित्त्यनुवृत्तः प्रत्येकमभिसंबंधः । व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं । किमर्थं तदुक्तमित्याह -
बीसमें सूत्र से बयावृत्त्व इस शब्द की अनुवृत्ति कर ली जाती हैं, इस कारण उस वयावृत्यपदका षष्ठी विभक्ति वाले आचार्य आदिप्रत्येक के साथ परली ओर सम्बन्ध कर लिया जाय । आचार्य की वैयावृत्य, उपाध्याय की वैयाक्त्य आदिक यो दस, भेद कर पूरे नाम समझे जाते हैं । व्यावृत्त शब्द से भाव या कर्म मे ष्यत्र प्रत्यय कर ऐच का आगम करते हुये वैयावृत्य शब्द बना लिया जाता है। व्याक्त्त हो रहे पुरुष का भाव (परिणाम) अथवा कर्म (क्रिया) वैयावृत्य है । वह वैयावृत्य किसलिये कहा. मया है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं।