Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
( १८५
नाग्न्याद्याः सप्त चारित्रमोहे सति परीषहाः । सामान्यतो विशेषाच्च तद्विशेषेषु तेऽर्थतः ।।१।। ज्ञानावरणमोहान्तरायसंभूतयो मताः ।
इत्येकादश ते तेषानभावे न कचित्सदा ॥२॥
सामान्य रूपसे चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होते सन्ते नग्नता आदिक परीषहे सहनी पडती है। उन चारित्र मोहनोय के विशेष प्रकारोंका उदय होते सन्ते वे परीषहे अर्थ के अनुसार विशेष रूपसे हो जाती है, जैसे कि अरति का अर्थ रुचि नहीं लगना इस जर्थ से अरति नामक विशेष चारित्र मोहनीय कर्म का उदय तो अरति परीषहका कारण हैं ।अर्थ अनुसार नग्नता और परीषह का कारण वेद का उदय है,यों विशेष कर्मोके कारण विशेष हैं। अबतक यों उक्त तीन सूत्रो मे ज्ञानावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्मोद्वारा अच्छी उपजायीं जारही वे प्रज्ञा, अज्ञान,अदर्शन: अलाभ,नग्नता,अरति,स्त्री,निषद्या,आक्रोश, अयाचना,सत्कारपुरस्कार, यों ग्यारह परिषहे मानो गयो हैं। उन उक्त ज्ञानोवरणादि कर्मोंका अभाव हो जानेपर सर्वदा किसो भो आत्मा में ये परिषहें नहीं उपज पाती हैं।
अवशेष बचरहीं ग्यारह परिषहों के निमित कारण हो रहें कर्मविशेष का प्रति पादन करने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
वेदनीये शेषाः ॥१६॥ कही जा चुकी ग्यारह परिषहों से शेष बच गयी क्षुधा, पिंपासा,शीत, उष्ण, दंश मशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तपस्पश, मल ये ग्यारह परिषहे तो वेदनीय कर्म का उदय होते सन्ते संभव जाती है ।
__उक्तादन्यनिर्देश शेष इति । ते च क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावध रोगतरणस्पर्शमलपरीषहाः । किमेकाकिन्येव वेस्नोयेऽसो भवन्त्युत सहकार्यपेक्षे सतीत्याशंका यामिदमाह---..
सत्रमे कहा गया शेष यह शब्द कही जा चुकी प्रजा, अज्ञान,आदि ग्यारह परीषहों से भिन्न हो रही क्षुधा, पिपासा, आदि परिषहों का कथन करनेवाला है और वे शेष परीषहे तो क्षुधाति, प्यासदुःख, शोतवाधा, उष्णवेदना, दंशमशकव्याधि, चर्या कष्ट शय्यापीला वधखेद,रोगव्यथा,तृणस्पर्शव्यथन,मलक्लेश ये ग्यारह है। यहा काई शंका उपस्थित करता है। कि वे क्षुधा आदिक ग्यारह परीषहे क्या अकेले वेदनीय कर्मों के उदयापन्न होने पर ही हो जाती हैं ? अथवा क्या अपने सहकारी कारण हो रहे मोहनीय या अन्य कर्म की अपेक्षा रख