Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१८३ )
नवमोऽध्यायः
दर्शनमोहान्तराययो दर्शनालाभौ ॥१४॥
दर्शन मोहनोय कर्मके उदय अनुसार अदर्शन परोषह होतो हैं और लाभान्तराय कर्म का उदय हो जानेपर अलाभ परीषह संभवती है।
किं पुनरदर्शनमत्रेत्याह- .
सूत्र में कहा गया अदर्शन फिर यहां क्या है ? क्या ज्ञानसे पहिले होनेवाले महासत्ता का आलोचनस्वरूप दर्शन का अभाव है ? अथवा क्या तत्त्वार्थश्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शन का अभाव अदर्शन समझा जाय ? बताओ ! ऐसी जिज्ञासा उत्थित होने पर ग्रन्थकार अग्रिमवातिक को कह रहे है।
अदर्शनमिहार्थानामश्रद्धानं हि तद्भवेत् । सति दर्शनमोहेऽस्य न ज्ञानात् प्रागदर्शनं ॥१॥
यहां सूत्रमें वह अदर्शन तो तत्त्वोंका अश्रद्धान स्वरूप ही हो सकेगा। कारण कि दर्शन मोहनीयका उदय होते सन्ते इस अश्रद्धान स्वरूप अदर्शनका ही संभव जाना सुघ. टित है। ज्ञान से पूर्व में होनेवाले दर्शन का अभाव यहां अदर्शन नहीं लिया जावेगा। यदि ऐसा होता तो सूत्र में कारण कहते समय दर्शनावरण कहा गया होता।
विशिष्टकारणनिर्देशादवध्यादिदर्शनसंदेहाभावः । अन्तराय इति सामान्य निर्देशेपि सामाद्विशेषसंप्रत्ययः । कः पुनरसौ विशेष इत्याह--
यहाँ दर्शन मोहनीय इस विशिष्ट कारण का कण्ठोक्त निर्देश है, इस कारण अवधि दर्शन, चक्षुर्दर्शन, आदि का सन्देह नहीं होने पाता है । अर्थात् यदि अवधिदर्शन या अचक्षुर्दर्शन का अभाव अभीष्ट होता तो कारणकोटि में दर्शनावरण का उदय कहा जाता, सूत्र में जब कि दर्शनमोहको कारण बताया गया है तो उसका कार्य तत्त्वार्थों का अश्रद्धान नामक अदर्शन ही पकड़ा जा सकता है । इस सूत्र में यद्यपि अन्तराय इस प्रकार सामान्य रूपसे कारण का निर्देश किया गया है । तथापि भविष्य में होने योग्य कार्यकी सामर्थ्यसे सामान्यकर्म अन्तराय के विशेष हो रहे लाभान्तरायकी अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा समीचीन प्रतीति हो जाती हैं। जिस विशेष की प्रतीति हो जाती है वह विशेष फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा उपजनेपर' ग्रन्थकार अग्रिमवातिक को कह रहे हैं।
अन्तरायोत्र लाभस्य तद्योग्योर्थाद्विशेषतः। कारणस्य विशेषाद्धि विशेषः कार्यगः स्थितः ॥२॥