Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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उस विशुद्धि से उस हो परिहारविशुद्धि संयम को उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, उस परिहार विशुद्धि की उत्कृष्ट विशुद्धि से सामायिक, छेदोपस्थापना, इन पहिले दोनों चारित्रोंको उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है, उस सामायिक, छेदोपस्थापनाओं की उत्कृष्ट विशुद्धि से सूक्ष्मसांप राय संयमको जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, उस सूक्ष्मसत्पराय की जघन्य विशुद्धि से उसी सूक्ष्म पराय की उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । तिस सूक्ष्मसांपराय की उत्कृष्ट विशुद्ध से ययारुपात चारित्र की विशुद्धि अनन्वगुणी है, क्योंकि यह यथाख्यात चारित्र सम्पूर्ण नेसे विशुद्ध हो रहा हैं, कर्मों के क्षय से हुई और भविष्य मे कर्मों का क्षय करानेवाली आत्माको पुरुषार्थजन्य प्रसन्नता को यहां विशुद्धि समझा जाय, जैसे कि संचित हो चुके बात, पित्त, कफ, के कोपजन्य दोषों का या रोगों का अव्यर्थ औषधि द्वारा जितना जितना निराकरण होता जाता है, उतनी रोगी की प्रसत्रता या स्वस्थता बढती जाती है ।
उसी प्रकार उक्त पांचों चारित्रों में विशुद्धि का तारतम्य बढ रहा तोल दिया गया है । इस ही सूत्रोक्त रहस्य को ग्रन्थकार अगिली दो वार्तिको में स्पष्ट कह रहे हैं । सामायिकादि चारित्रं सूत्रितं पंचधा ततः । सम्वरः कर्मणां ज्ञेयोऽचारित्रापेक्षजन्मनां ॥१॥ धर्मान्तर्भ तमप्येतत्संयमग्रहणादिह । पुनरुक्तं प्रधानत्वरूपातये निर्वतिं प्रति ॥ २ ॥
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इस सूत्र सामायिकादि पाँच प्रकारके चारित्रका निरूपण किया जा चुका है । चारित्र नहीं पालना स्वरूप अचारित्र की अपेक्षा से जन्म ले रहे कर्मों का उन चारित्रों से संवर हो चुका समझ लेना चाहिये । उत्तमक्षमा आदि दशविध धर्मों में संयम का ग्रहण है | अतः धर्मो मे अन्तर्भूत हो रहा भो यह संयमस्वरूप चारित्र पुनः यहां इस बातको प्रसिद्ध करने के लिए कहा गया है कि मोक्ष की प्राप्ति के प्रति इस चारित्र की हो प्रधानता है, अव्यवहित रूपेण चारित्र ही मोक्ष का प्रधान कारण है ।
अथ तपोवचनं धर्मान्तर्भूतं तद्विविधं बाह्यमाभ्यंतरं च तत्र बाहयभेद प्रतिपत्यर्थमाह
चारित्र का निरूपण हो चुका, उसके बाद तपसे निर्जरा भी होती है । यों सूत्रित किया गया है। दशधर्मों मे तपका निरूपण अभ्तर्भूत हो रहा है, वह तप बाह्य और अभ्यन्तर भेदोंसे दो प्रकार है, उन दो भेदोंमे से बाहर भेदों को प्रतिपत्ति कराने के लिए श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।