Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
(१७७
घातिहत्युपचर्यन्ते सत्तामात्रात्परीषहाः। छद्मस्थवीतरागस्य यथेति परिनिश्चितं ॥३॥ न चुदादेरभिव्यक्तिस्तत्र तद्धेतुभावतः ।
योगशून्ये जिने य द्वदन्यथातिप्रसंगतः ॥४॥
" कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या" कषाय के उदय से अनुरञ्जित हो रही योगों की प्रवृत्ति लेश्या हैं । केवली भगवान के कषायें नहीं हैं, यों लेश्या का एकदेश हो रहे मात्र योग का सद्भाव हो जाने से जैसे जिनेन्द्र भगवान् में लेश्या का उपचार है उसी के समान घातियों का संहार कर चुके भगवान् में वेदनीय कर्म की वस्तुतः सत्ता होने से परीषहों का उपचार किया गया है। भूख, प्यास आदि लगने में मोह को आवश्यकता हैं। पिपासा शब्द में तो " पातुमिच्छा" यों इच्छा कण्ठोक्त प्रविष्ट हो रही हैं। ग्यारहवे बारहवें गुणस्थानों में मोह का उदय सर्वथा नहीं है । अतः जिस प्रकार छदमस्थ वीतराग मुनि के भूख, प्यास, आदि की अभिव्यक्ति, वहां उसके हेतु वेदनीय के सद्भावमात्र से नहीं होने पाती हैं अथवा जैसे चौदहमें गुणस्थानवर्ती योगरहित अयोग जिनेन्द्र में वेदनीय का केवल सद्भाव हो जाने से कोई भूख, प्यास, नहीं लगती हैं, उसी प्रकार तेरहवें गुणस्थान में भी कोई परीषह नहीं सताती हैं अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा। अर्थात्-जिनेन्द्र के लग रहीं पिचासी प्रकृतियों में देवगति, दुर्भग, अयशस्कोति, अपर्याप्त, दुःस्वर, नीच गोत्र आदि प्रकृतियां भी स्वकीय फल को कर बैठेंगी, जो कि इष्ट नहीं है। इस तरह सिद्धान्त का हम पूर्ण रूप से निश्चय कर चुके हैं कि अनन्त सुखो भगवान् के व्यक्तिरूप से परीष है नहीं हैं। और न उनके द्वारा उत्पन्न दुःख की ही वहां संभावना है।
नैकं हेतुः चुदादीनां व्यक्तौ चेदं प्रतीयते । तस्य (तेषां) मोहोदयादव्यक्तेरसद्वेद्योदयेपि च ॥५॥ क्षामोदरत्वसंपत्तो मोहापाये न सेक्ष्यते । सत्याहाराभिलाषेपि नासद्वेद्योदयाहते ॥६॥ न भोजनोपयोगस्यासत्वेनाप्यनुदीरणा। असोतावेदनीयस्य न चाहारेक्षणाद्विना ॥७॥