Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
( १७५
एकादश जिने ॥११॥ केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने के कारण क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, डांस मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तुणस्पर्श, मल ये ग्यारपरीषहें हो जाना संभवता हैं । अथवा इस सूत्र का दूसरा अर्थ यों है कि "एकेन अधिका न दश" एक से अधिक दश यानी ग्यारह परीषहें भगवान् के नहीं हैं। एकादश शब्द के पेट में से न का अर्थ निषेध काढ लिया है।
तत्र केचित् संन्तीति व्याचक्षते, परे तु न सन्तीति । तदुभयव्याख्यानाविरोधमुपदर्शयन्नाहः
केवली भगवान में परीषहों के विचार का बह प्रेकरण उपस्थित होने पर इस सूत्र का अर्थ कोई विद्वान् यों बखानते हैं कि केवलज्ञानी में ग्यारह परीषहे हैं, इस व्याख्यान से श्वेताम्बर लोग प्रसन्न होते हैं। अन्य विद्वान् तो जिनेन्द्र में ग्यारह परीषहें नहीं हैं ऐसा सूत्रार्थ करते हैं। अब ग्रन्थकार महाराज उन दोनों ही व्याख्यानों के विरोध. रहितपन को युक्तिपूर्वक दिखलाते हुये इस अगली वार्तिक को कह रहे हैं ।
एकादश जिने सन्ति शक्तितस्ते परीषहाः।
व्यक्तितो नेति सामर्थ्यात् व्याख्यानद्वयमिष्यते ॥१॥
जिनेन्द्र भगवान् में वे क्षुधादि ग्यारह परीषहें शक्तिरूप से हैं, व्यक्तिरूप से प्रकट नहीं हैं। इस प्रकार अर्थ सम्बंधी और शब्दसंबन्धी न्याय की सामर्थ्य से दोनों ही व्याख्यान अभीष्ट किये गये हैं। अर्थात् श्वेताम्बरों के यहां माने गये केवली के कवलाहारग्रहण करनेका "प्रमेयकमलमार्तण्ड" में बहुत बढिया निराकरण कर दिया गया है जैसे कि
गट्ठपमाये पढमा सण्णा ण हि तत्थ कारणाभावा ।
सेसा कम्मत्थित्ते उवयारे पत्थि पहि कज्जे ॥
सातमे, आठवें, नौमे "गुणस्थानों में कार्यरूप आहार, भय, मथुन, परिग्रह, संज्ञायें नहीं हैं। क्योंकि अन्तरंग कारण मानी गयी असाता की उदीरणा का अभाव है। साता, असाता की उदीरणा, छठे गुणस्थान तक ही हो जाती है। अतः कर्मों का मात्र अस्तित्व रहने से तीन संज्ञाओं का व्यवहारमात्र हैं । आहारसंज्ञा तो कथमपि नहीं है। उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के कोई भी परीषह व्यक्ति रूप से नहीं पाई जाती है।