Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवातिकालंकारे
१७४ )
जो फल होता है वह केवल असहाय रह गये वेदनीय का भी फल नहीं है । यदि वेदनीय के सद्भाव मात्र से उस फल का होना माना जायगा तो अतिप्रसंग दोष कठिनता से त्यागने योग्य लग बैठेगा । निर्विकल्पकं शुद्धोपयोग अवस्था में भी अनेक प्रकार की बाधाओं के अनुभव होने लगेंगे, आठवें, नौमे, गुणस्थानों में स्त्रीवेद, पुंवेद, व नपुंसकवेद का उदय अपने लटके दिखलावेगा । भय कर्म का उदय भी मुनि को भीत कर देगा, क्षपक श्रेणी में शीत, उष्ण वेदनायें खूब सतायेंगी । ऐसी दशा में क्षपक श्रेणी कैसे टिक सकती है ? अतः सूत्रोक्त रहस्य ही पुष्ट समझा जाय ।
न हि साधनादिसहायस्याग्नेर्धूमः कार्यमिति केवलस्यापि स्यात् तथा मोहसहायस्य वेदनीयस्य यत्फलं क्षुधादि तदेकाकिनोपि न युज्यते एव तस्य सर्वदा मोहानपेक्षत्वप्रसं गात् । तथा च समाध्यवस्थायामपि कस्यचिदुद्भूतिप्रसंग: । तस्मान्न क्षुदादयः सूक्ष्मसांपराये व्यक्तिरूपाः सन्ति मोहादिसहायासंभवात् छद्मस्थवीतरागवदिति, शक्तिरूपा एव ते तत्रावगंतव्याः । गीला ईंधन, वायु आदि से सहायता प्राप्त हो रहे अग्निका कार्य धूम हैं । एतावता वह धूम क्या अंगार, तप्त अयोगोलक आदि अवस्था की केवल अग्नि का भी कार्य हो जायगा ? कभी नहीं । तिसी प्रकार मोहनीय कर्म को सहायक पा रहे वेदनीय कर्म का जो फल भूख, प्यास, लगना आदि है वह फल केवल एकाकी रह गये वेदनीय का भी कहना युक्तिपूर्ण नहीं है । यदि अकेला वेदनीय भी कार्यकारी बन बैठे तो उसको सदा मोहनीय की अपेक्षा रखने के अभाव का प्रसंग हो जायगा और तंसा अनर्थ हो जाने से समाधि अवस्था में भी किसी एक भूख, प्यास आदि की कटु वेदना फल के प्रकट हो जाने का प्रसंग बन बैठेगा जो कि किसी भी श्वेताम्बर या वैष्णव आदि के यहां अभीष्ट नहीं किया गया है । तिस कारण से सिद्ध हो जाता है कि सूक्ष्मसां पराय में (पक्ष) क्षुधा आदिक परीष व्यक्तिरूप प्रकट नहीं हैं ( साध्यदल ) मोहनीय, ज्ञानावरण, अंतराय आदि की सहायता का असंभव हो जाने से ( हेतु ) छद्मस्थवीतराग के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार वे परीषहें शक्तिरूप ही वहां उक्त तीन गुणस्थानों में समझ लेनी चाहिये ।
अथ भगवति केबलिनि कियन्तः परीषहा इत्याहः --
अब कोई जिज्ञासु पूँछता है कि शरीरधारी आत्मा में आप शक्तिरूप से या व्यक्तिरूप से परीषहों का सद्भाव स्वीकार करते हैं तो तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी महाराज में कितनी परीषहें सम्भवती हैं ? बताओ । ऐसी जिज्ञासा उपस्थित होने पर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।