Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
(१६१
एक बात यह भी हैं कि उद्देश दल के अनुचिन्तन पद को और बिधेयदल के अनुप्रेक्षा पद को कर्म में प्रत्यय कर साध लिया जाय जो पुनः पुनः चिन्ता जाय वह अनुप्रेक्षा करने योग्य है यों समान अधिकरणपने की सिद्धि हो जाती है। जब कि दोनों पदों को कर्म में प्रत्यय कर कृदन्त पद बना लिया गया है।
कर्म और परीषहजय के मध्य में अनुप्रेक्षाओं का निरूपण तो दोनों का निमित्तकारणपना होने से कर दिया है । देहलोदीपकन्याय से कारणभूत अनुप्रेक्षाओंका बीच में प्रतिपादन है अनुप्रेक्षाओं की भावना करता हुआ पहिले उत्तम क्षमा आदि धर्मों का पालन करता है और पिछली परीषहों को भी जीतने का उत्साह रखता है। अतः धर्म और परोषहजय के निमित्त हो रहीं अनुप्रेक्षाओं को उन दोनों के मध्य में कह दिया गया है ।
___ यहाँ कोई तर्क उठाता है कि वे बारह अनुप्रेक्षायें किस युक्ति करके प्रसिद्ध हो रहीं संती संवर के कारणपने से कह दी जा रही हैं ? बताओ। ऐसी तर्कणा उठने पर ग्रन्थकार इस अगली वार्तिक को कह रहे हैं।
अनुप्रेक्षाः प्रकीय॑तेऽनित्यत्वाद्यनुचिन्तनं ।
द्वादशात्राननुप्रेक्षा विपक्षत्वान्मुनीश्वरैः ॥१॥
मुनियों के ईश्वर हो रहे सर्वश, गणधर, आचार्य महाराजों या सूत्रकारों ने अनित्यपन, अशरणपन आदि का पुनः पुनः चिन्तन करना ये बारह अनुप्रेक्षायें इस सूत्र में बढ़िया प्ररूपणा कर दी हैं (प्रतिज्ञा) कारण कि शरीर आदि को नित्य मान बैठना चाहे जिसको शरण मान बैठना आदिक अनुप्रेक्षाविहीन परिणतियों की विपक्ष हो रहीं ये अनुप्रेक्षायें हैं (हेतु) । आस्रव के विरोधी कारणों से अवश्य संवर हो जाता है।
परिकल्पिता एवानित्यत्वादयो धर्मास्तेषामात्मनि शरीरादिषु च परमार्थतो. सत्वादित्यपरे तान् प्रत्याहः
यहां सांस्यपण्डितों की ओर से कटाक्ष है कि अनित्यपन आदिक धर्म तो सब यहाँ वहाँ से कल्पना कर लिये गये ही हैं (प्रतिज्ञा) क्योंकि आत्मा और शरीर धन आदि में उन धर्मों का वास्तविक रूप से असद्भाव है (हेतु) इस प्रकार जो कोई दूसरे विद्वान् कह रहे हैं उनके प्रति आनार्य महाराज अगली वार्तिक में समाधान वचन कहते हैं।