Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पागरणालक्षणो धर्मः स्वाख्यातः, गतींद्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्यामव्यसम्यक्त्व संज्ञाहारकेषु मागेरणा । स्वाख्यात इति युच प्रसंग इति, प्रादिवृत्तेः शोभनमाख्यात इति ।
आत्मा करके ग्रहण कर लिये गये कर्म नोकर्म पुद्गल द्रव्य उत्पाद हैं और परमाणुयें, अब्राह्यवर्गणायें, नभोवर्गग्गायें, आदिक तो नहीं ग्रहण किये गये अनुपात्त पुद्गल द्रव्य है । अर्थात् वर्तमान या कुछ आगे पीछे के भूतभविष्य काल में ग्रहण अग्रहण हो जाने की अपेक्षा से उपाप्त, अनुपात्त व्यवस्था है। नहीं तो प्रायः सभी पुद्गलों को जीव ग्रहण कर चुका है । यों सभी उपात्त हुये । पदार्थों के भक्ष्यपन या अभक्ष्यपनका नियम भी वर्तमान पर्याय अनुसार है । अन्यथा अन्न, शाक, आदि की पूर्व अवस्थायें खात, मल, मूत्र, हड्डिये, अनछना पानी आदि महान अशुद्ध पदार्थ हैं । पीछे भी अन्न के रक्त, मांस, मल, आदि बनेंगे जो कि कालान्तर में पुनः अन्न, घास, आदि बन सकेंगे। चोर ने कोई वस्तु चुराई है यदि वस्तु या चोर की पूर्वपर्यायों को विचारा जाय तो कदाचित् वह चीज चोर को हो चुकी है उल्टा साहूकार ने चोर की वस्तु को चुरा रखा है । स्वस्त्री परस्त्री का नियम भी वर्तमान काल की अपेक्षा से ही है। पूर्वजन्मों में अनेक परस्त्रियां किसी विवक्षित जीव की स्वस्त्रियां हो चुकी हैं। ऐसी दशा में भक्ष्यपदार्थ, अचौर्य, परस्त्रीत्यागवत, इन सब में वर्तमान पर्यायों के लक्ष्य की ही प्रधानता हैं।
___ग्रन्थकार कह रहे हैं कि इन उपात्त या अनुपात्त हो रहे शरीर, इन्द्रिय, उप. भोग्य विषय, स्वजन आदि द्रव्यों के संयोग का व्यभिचारस्वभाव चिन्तन करना अनित्यत्व अनुप्रेक्षा है । अर्थात् संसार में कोई भी पदार्थ पर्यायरूपसे स्थिर नहीं। है जिसका संयोग होता है उसीका कुछ काल में वियोग हो जाता है । यह जीव मोहसे धन, कुटुम्ब, आदिको नियमसे संयुक्त मान बैठा है। किन्तु ये सब नियमित मान लिये गये संयोग से विपरीत होकर व्यभिचारस्वरूप हो रहे हैं । अर्थात् स्थायीपनसे अतिरिक्त होकर भंगुर हैं (साध्याभावववृत्तित्वं)।
भूख से विकल हो रहे वाघ से दवा लिये गये मृग छोंने का जैसे कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार बुढापा, मृत्यु, रोग, यमराज के उपस्थित हो जाने पर जीवका पूर्णतया रक्षण करने वाला कोई नहीं है ऐसा विचार करना अशरणपना है। यम एक व्यन्तर देव है। इन्द्र का लोकपाल हो रहा वैमानिक देव भी है। किन्तु रूपक प्रकरण अनुसार उदय या उदीरणाप्राप्त आयुष्य कर्म के उस भवसंबन्धी अन्तिम निषेकों को जैनसिद्धान्त में यमराज माना गया है। लोकव्यवहार में मरण आया तो यमदेव ले जाता है ऐसी धारणा है, परंतु आयुकर्म के क्षीण होने पर मरण समय पर आता है। इस में यम का कोई संबंध नहीं है।