Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
( १३३
। इस
यहां कोई आक्षेप करता है कि उत्तमक्षमा आदि धर्म के भेदों में तप का अन्तर्भाव हो जाने से यहां पुनः पृथक् रूप से तप का ग्रहण करना व्यर्थ जचता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि पूर्वसूत्र में उत्तमक्षमा, तप, आदि धर्मों को संवर का हेतु कहा गया है और इस सूत्र में तप को निर्जरा का कारणपना प्रसिद्ध करने के लिये तपःका निरूपण है । दूसरी बात यह भी है कि संवर के सम्पूर्ण हेतुओं में तप ही प्रधान है, इस रहस्य को समझाने के लिये ही तर का पृथक् ग्रहण किया गया सूत्र में पडे हुये च शब्द का अर्थ समुच्चय यानी दूसरे को इकट्ठा करना है । यों इस च शब्द के कथन का प्रयोजन संवर के निमित्त हो जाने का समुच्चय करना हुआ अर्थात् संवर का हेतु भी तप होता है । पुनः कोई शंका उठाता है कि तप तो देवेन्द्र, नागेन्द्र आदि अभ्युदय स्थानों की प्राप्ति का कारण माना गया है । अतः पूर्वसंचित कर्मों को निर्जरा का हेतुपना तप को घटित नहीं होता हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । कारण कि एक कारण के द्वारा अनेक कार्यों का आरम्भ होना देखा जाता है जैसे कि एक ही आग जलाना पचाना, फफोला डाल देना, सुखाना आदि अनेक कार्यों को करती है, उसी प्रकार तप भी लौकिक अभ्युदय और एकदेश कर्मक्षय का हेतु हो जाता है कोई विरोध नहीं है । अथवा एक बात यह भी है कि जैसे किसान खेती करने में प्रवृत्त होता है, उसका प्रधान लक्ष्य अन्न की उत्पत्ति करना है और गौण रूप से पशुओं के लिये पराल, भुस, आदि का उपजाना भी है, इसी के समान मुनि के भी तपश्चरण का गौणफल स्वर्गाभ्युदय की प्राप्ति हो जाना है और तपस्या का प्रधानफल तो कर्मों का क्षय होकर मोक्षफल की प्राप्ति बन जाना हैं । कोई पण्डित यहाँ तर्क उठा रहा है कि किस हेतु यानी युक्ति करके यह सूत्रोक्त रहस्य सिद्ध कर दिया जाता है ? बताओ । इसका समाधान ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा करते हैं ।
तपसा निर्जरा च स्यात् संवरश्चेति सूत्रितं । संचितापूर्वकर्माप्तिविपक्षत्वेन तस्य नुः ॥ १ ॥
तपश्चरण से जीव के कर्मों की निर्जरा होती है और संवर भी हो जायगा
इस प्रकार सूत्र में बहुत अच्छा निरूपण किया जा चुका है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उस तप का जीव के संचित कर्म और अपूर्व कर्मों की प्राप्ति का विरोधीपने करके निर्णीत कर लिया गया है अर्थात् जो संचित कर्मों का विरोधी होगा वह अवश्य जीव के संचित कर्मों का क्षय कर देगा | नवीन अपूर्व कर्मों का विरोधी पदार्थ भी नवीन कर्मों को आने नहीं देगा ।